दीपावली प्रथा

diwali

हम त्यौहार मनाते हैं परम्परा के अनुसार जो चले आ रहे रीति-रिवाजों के अनुसार, लेकिन क्या हमने यह कभी जानने की चेष्टा की है कि ये त्यौहार कब से मनाये जा रहे हैं अथवा इसके मनाने के पीछे कारण क्या है, आखिर क्यों दीपावली को ही लक्ष्मीपूजा की जाती है? माँ लक्ष्मी प्रत्येक व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन की आराध्य हैं, संसार का आधार है, माँ महालक्ष्मी के मात्र धन से ही सुख, शांति नहीं मिलती, धन से भोजन खरीदा जा सकता है, लेकिन भूख या स्वास्थ्य नहीं। रुपया-पैसा हजारोंलाखों के पास हो सकता है, लेकिन जरुरी नहीं कि रुप, यौवन, प्रभुता, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य मिले? माँ लक्ष्मी की कृपा से धन, यौवन, रुप, पद, प्रतिष्ठा, यश, कीर्ति सभी उपलब्ध हो जाते हैं, इसीलिए कि माँ लक्ष्मी सभी कुछ देने में समर्थ है। विश्व में बहुत सी साधनाये हैं, सामान्य गृहस्थ या साधक अपनी स्थिति परिस्थिति के अनुसार साधनाएँ (कर्म) कर सफलता प्राप्त करते हैं। दीपावली की परम्परा कब से प्रारम्भ हुई, यह बताना व जानना प्राय: कष्ट साध्य है, परन्तु आज से २१ हजार वर्ष पूर्व से इस परम्परा का इतिहास अलग-अलग ढंग से इतिहासों में ग्रंथित मिलता है। कन्या संक्रान्ति में (कन्या के सूर्य में) पितृ श्राद्ध पक्ष बनता है। तुला संक्रान्ति में पितृ गण स्वस्थान को प्रस्थान करते हैं, उनके मार्गदर्शन के लिए दीप दान का विधान अमावस्या (पितृ तिथि) को किया गया है इसी दिन को ‘दीपावली’ कहते हैं।

पतरों के प्रसन्न होने से ही देवगण प्रसन्न होते हैं और देवगण प्रसन्नता से ही धन का आगमन होता है और धन की देवी लक्ष्मी है और यह सिद्धान्त है, इस सिद्धान्त के मद्देनजर कार्तिक कृष्ण अमावस्या को ही ‘दीपावली’ का दिन पड़ता है अन्य दिनों में नहीं। कालरात्रि एक

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सामान्य दीयों के अलावा आजकल बा़ जार में सिरेमिक अर्थात् प्लास्टर ऑफ पेरिस के दीपक भी मिलते हैं, पारम्परिक आकार के अतिरिक्त ये अब डिजाइनर स्वरुप में भी मिलने लगे हैं। मट्टी के हों या प्लास्टर ऑफ पेरिस के, दियों का होना दीपावली का प्रमुख आकर्षण होता है, चाहे लाख बिजली के रंगीन लट्टुओं की झालरें आ जाएँ, लेकिन वो कभी भी दियों की जगह नहीं ले सकते, आज भी हमारे यहाँ मोमबत्ती और बिजली की रोशनी के साथ-साथ घरों में दिये ही सजाये जाते हैं और पूजा भी दियों से ही पूरी होेती है, ये एक तरह के शुभ सूचक होते हैं। सामान्य दियों के अलावा आजकल बा़जार में सिरेमिक अर्थात् प्लास्टर ऑ फ पेरिस के दिपक भी मिलते हैं, पारम्परिक आकार के अतिरिक्त ये अब डिजाइनर स्वरुप में भी मिलने लगे हैं, आप चाहें तो उन्हें घर पर ही और सुंदर बना सकती हैं। आइए, जानें में मिलने वाले ऑयल पेंट के ट्यूब खरीद लीजिए और इससे

मनचाही डिजाइन से दीपक की बार्डर तथा अन्य आकृतियाँ बनाइए, विभिन्न रंगों के साथ सिल्वर, कॉपर, गोल्डन तथा पर्ल शेड के कोन भी बाजार में सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध हैं। पूजा में रखे जाने वाले दीपक को अलग लुक देने के लिये उस पर सुंदर लेस या गोटा, जरी लगाकर उसकी बार्डर को रिच बनाइए, साथ में कुछ मोती या स्टोन भी सजाइए। रंगीन आर्टीफिशियल -पत्तियों को दिपक के बाहरी हिस्से पर चिपकाइए और इसे ड्राइंग रूम में सजाइए। रंगोली के रंगों का भी उपयोग आप दिपक को सजाने में कर सकती हैं, थोड़ा-सा एधेसिव लगाकर रंग ऊपर से बुरकिए और देखिए मल्टी कलर दीपक तैयार है, तो इस प्रकार यहाँ दिये हुए तरीके अपनाकर इस दीपावली पर आप अपने घरों में दिपक कुछ नवीन तरीकों से तैयार करें, इस तरह घर की सुंदरता तो बढ़ेगी ही, साथ ही मेहमानों से तारीफ भी बटोरेंगे।

ओर जहाँ शत्रु विनाशिनी होती है वहीं उसे शुभत्व का प्रतीक, सुख-सौभाग्य प्रदायिनी होने का प्रतीक, व प्रदायिनी होने का गौरव भी प्राप्त है। मंत्र में कालरात्रि को गणेश्वरी की संज्ञा प्राप्त है जो रिद्धि-सिद्धि प्रदायिनी है। दीपावली की रात्रि को लक्ष्मी, कुबेर व गणपती की पूजा-साधना का विशेष महत्व है, इस रात्रि को मंत्र-तंत्र और यंत्र की सिद्धि की जाती है। दीपावली की रात्रि के चार प्रहर अपना अलग-अलग महत्व रखते हैं। प्रथमनिशा, द्वितीया-दारुण, तृतीय-काल, चतुर्थ-महाकाल, सामान्यत: दीपावली की रात्रि में आधी रात के बाद डेढ़ से दो बजे के समय को महानिशा का समय निरुपित किया जाता है। मान्यता यह भी है कि इस कालावधि में लक्ष्मी जी की साधना करने से अक्षय धन-धान्य की प्राप्ति होती है। पौराणिक ग्रन्थों में इसे स्पष्ट भी किया गया है-

अर्धरात्रात् परयच्च मुहूर्तज्ञयमेव च
सामहारात्रि रुटिटष्टा ताऊतं चाक्षयं भवेत

ताप्तर्य यह है कि दीपावली की रात्रि को आधी रात के बाद जो दो मुहूर्त का समय है, उसको महानिशा कहते हैं, इस कालवधि में आराधना करने से अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। ज्योतिषिय गणना यह है कि दीपावली के दिन सूर्य एवं चन्द्रमा दोनों ही ग्रह तुला राशि में होते हैं। तुला राशि का स्वामी शुक्र ग्रह है जो सुख-सौभाग्य का कारक है। रुद्रयामल तंत्र में इस तथ्य का उल्लेख भी है। तद्राधनार्थ प्रछाति शुक्र: अर्थात् जब सूर्य एवं चन्द्रमा तुला राशि में होते हैं,

तब लक्ष्मी पूजन से धन-धान्य की प्राप्ति होती है, इसी तरह तंत्र साधकों का विश्वास है कि दीपावली की अर्धरात्रि को किया गया अनुष्ठान शीघ्र सफलतादायक एवं सिद्धिदायक होता है। वास्तव में दीपावली की रात को महानिशा के नाम से जाना जाता है। आदिकाल से पुराणों में शक्ति पूजा के लिए वर्ष के विभिन्न दिनों को महत्ता प्रदान की गयी है। हमारे प्राचीन शास्त्र और पुराण कार्तिक मास की अमावस्या के दो दिन पूर्व और दो दिन बाद का समय भारतीय मनीषियों के अनुसार पुण्य का समय होता है, इसीलिए कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी, (धनतेरस) चतुर्दशी को नरक चर्तुदशी, अमावस्या को दीपावली अर्थात् लक्ष्मी पूजन का पर्व और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अन्नवूâट पर्व तथा द्वितीया को यम द्वितीया के रुप में मनाया जाता है, शरद ऋतु के इस काल में उपासना-साधना अत्यंत उपयोगी मानी जाती है। महानिशा एक ऐसी रात्रि है इसलिए तंत्र साधक इसका उपयोग करते हैं और अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए तंत्र साधना करते हैं। सामान्यत: मंत्र-तंत्र और यंत्र तीनों की सिद्धि महानिशा की कालावधि में की जाती है। तंत्र साधना के लिए यह कालावधि अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। ‘मेरा राजस्थान’ के प्रबुद्ध पाठक भी समझ गए होंगे कि क्यों दीपावली की रात्रि को ही लक्ष्मी का पूजन किया जाता है क्या अब आप इस रात्रि के पुण्य को, फल को यों ही खोना चाहेंगे, शायद नहीं। दीपावली पूजन शुद्ध मन से करें, इस पावन दिन पूर्ण लाभ उठायें, हो सकता है दीपावली पर्व के पश्चात् आपके जीवन से दरिद्रता सदैव के लिये चली जाए।
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