दुर्गा पूजा

एकम से आसोज सुदी नवमी तक देवी की पूजा नौ दिन तक की जाती है, इसीलिये उसे ‘नवरात्र’ या ‘महापूजा’ कहा जाता है। इसमें पूजा करना मुख्य कार्य है जबकि उपवास, एकासना (एक वक्त भोजन) नव व्रत आदि तो पूजा के अंग मात्र हैं, इसमें अपने-अपने कुल के आधार पर ही नवरात्रि के नियमों की अनुपालना करनी चाहिये, किसी के घर में पूजा-पाठ नहीं हो सकती तो कहीं और पूजा-पाठ करना अनिवार्य होता है, कुछ लोग तो केवल व्रत ही करते हैं जबकि वे पूजा-पाठ और हवन नहीं करवाते, वे अपने-अपने कुल-धर्म के अनुसार इस व्रतोत्सव का अनुष्ठान कर सकते हैं। सामान्यत: नवरात्रि का शुभारम्भ ‘एकम’ तिथि से होता है किन्तु जब कभी एकम टूट जाती है अथवा कभी तिथि बढ़ जाती है तब क्या करना चाहिए, इसकी जानकारी करनी भी आवश्यक है? नियम तो यह है कि प्रतिपदा के दिन तिथि ६ घड़ी, ४ घड़ी, २ घड़ी रहे तो उसे ही प्रतिपदा मान ली जाती है। अमावस्या के दिन यदि प्रतिपदा आ जाये तो भी अमावस्यायुक्त प्रतिपदा का यह अनुष्ठान नहीं करना, यदि प्रतिपदा के दिन तिथि दो घड़ी से कम हो बिल्कुल नहीं हो, तभी उसे अमावस मान लिया जाता है। देवीपुराण की कथा से युक्त प्रतिपदा को चंडिका का पूजन न करें। ‘प्रतिपदसत्वे अमायुक्ताऽपिग्राहया’ अर्थात् यदि एकम क्षय हो और प्रतिपदा न हो तो अमावस्या में भी स्थापना की जा सकती है। नवरात्र के प्रारम्भ का उल्लेख शास्त्रग्रंथों में भी हुआ है जिसे ‘आद्यपादौ परित्यज्य, प्रारभेत, नवरात्रकम्’ पंक्ति से प्रमाणित किया जा सकता है, इसका यह अभिप्राय

है कि पहले १० घड़ी छोड़कर यह व्रत आरम्भ किया जाये, यदि चित्रा वैधृत योग हो तो उसके अन्त में आरम्भ करें यदि उस दिन चित्रा-वैधृत पूरे हो तो तिथि के चौथे हिस्से से पूजा करनी चाहिए, इस पूजा के अधिकारी सभी वर्ग के लोग समान रुप से माने गये हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, मलेच्छ यहाँ किसी भी श्रेणी का व्यक्ति इसका अधिकारी हो सकता है, पूजा-पाठ करने का अधिकार तो सब को प्राप्त है किन्तु शुद्र और म्लेच्छ लोगों को होम करने का अधिकार नहीं है। प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त नव पाठ अवश्य करने चाहिए, यदि कार्य में बाधा हो तो तृतीया से नवमी तक ७ पाठ अथवा पंचमी से नवमी तक ५ पाठ अथवा सप्तमी से नवमी पर्यन्त तीन पाठ अथवा अष्टमी को एक पाठ या नवमी को एक पाठ करें। नवरात्र में चाहे एक ही पाठ क्यों न हो, वह अवश्य करना ही चाहिये, उसमें अखण्ड दीपक रखें या पाठान्त ही उसे प्रज्जवलित करें, यह साधक की इच्छा और क्षमता पर निर्भर है। विधि-विधान : प्रात:काल, दोपहरी या तीसरे प्रहर के बाद कलश-स्थापन करें प्रात:जल्दी उठें। उबटन (मालिश) कर आंवला से स्नान करें, फिर पवित्र वस्त्र पहन कर संकल्प करें- ‘मैं देवी की प्रीति पाने के लिये, सारी विपत्तियों का निवारण करने के लिये, धनपुत्रादि की वृद्धि के लिये, जय तथा कीर्ति की उपलब्धि के लिए प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त नवरात्र पूजा, गणपति पूजा, स्वस्तिवाचन के द्वारा चण्डी की आराधना करुँगा’ फिर लाल कपड़ा बिछावें और उस पर अष्टदल बनाकर कलश स्थापन करें

तदुपरांत गणपति पूजन तथा स्वस्तिवाचन का कर्मानुष्ठान किया जाये। कलश-स्थापना के समय, ‘महिद्यो’ मंत्र बोलते हुए जमीन पर हाथ रखें। ‘औषधय:’ मंत्र से जव डालें, उसमें गंगाजल मिलावें और गन्ध द्वारा उसकी सुगन्ध बढ़ावें या ‘औषधीय:’ मंत्र से वूट, छाल, छबील, हल्दी, वच, चमेली, नागरमोथा तथा दगड़पूâल भी डालें। ‘कण्डात्’ मंत्र से दूब डालें। ‘अश्वत्थेयौ’ मंत्र से पीपल, बड़, गूलर, आम कणेर के पत्ते मिलावें। ‘स्योनाप्र’ मंत्र से उसमें गजशाला, घुड़साल, राजद्वार, रथशाला, चौराहा, गौशाला तथा तालाब की मिट्टी डालें। ‘‘याफलिनी’’ मंत्र से सुपारी, ‘साहित्नानि’ मंत्र से पंचरत्न (सोना, चांदी, पन्ना, नीलम, हीरा) डालें। ‘युवा सुवासा:’ मंत्र से लाल वस्त्र लपेटें। ‘पूर्णादर्वि’ मंत्र से पूर्णपात्र तथा वरुण देव का आवाह्न करें। जवारा लगाना : पवित्र मृत्तिका (मिट्टी) का पात्र, तालाब की मिट्टी, गौबर, जव और पूजा की सामग्री तैयार कर जवारे लगाना चाहिए, मिट्टी के पात्र में मिट्टी साफ करके ‘महिधौ’ मंत्र से मिट्टी डालकर ‘गावश्चिद्’ मंत्र से उसमें गोबर डालना, ‘औषधय’ मंत्र से जव मिलाना और ‘वरुणो’ मंत्र से जल सींचना चाहिए, फिर ‘वाटिकास्वरुपायै नम:’ मंत्र से आवाहन-ध्यान पूजन करें, फिर नमस्कार करके पाठ में बैठने वाले ब्राह्मण को ‘नमोस्वनन्ताय’ मंत्र द्वारा तिलक-पुष्प-अक्षत-चढ़ावें। ‘व्रतेन दीक्षा’ मंत्र से वरणी बाँधे, सुपारी और दक्षिणा देवें और फिर पाठ करें। पाठ के प्रकार : ब्राह्मण का वरण करने के बाद आसन पर बैठकर यह
संकल्प करेंयजमानेन वृताऽहं चण्डीपाठं, नारायणह्रदयं, लक्ष्मीह्रदयं पाठं वा करिष्ये।’ तत्पश्चात सप्तशती का पाठ करना चाहिये अन्यथा ‘नारायण ह्रदय’ तथा लक्ष्मी ह्रदय का भी पाठ कर सकते हैं। पाटे पर पुस्तक रखें। नारायण को नमस्कार करें। नारायणं नमस्कृत्यं नरंचैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासें ततो जयमुदीरयेत्।। हिन्दी अनुवाद – नारायण को नमस्कार करने के पश््चात् नरों और नरों में श्रेष्ठ भगवान श्री कृष्ण, देवी महर्षि व्यास को प्रणाम कर ‘जय महाकाव्य’ का पाठ करना चाहिए, फिर नियमानुसार अथवा शाक्त पुस्तक पूजा करें। ‘ॐ ऐं, हीं क्रीं चामुण्डायै विच्चै नम:’ इस मंत्र के द्वारा गन्धपुष्पादि चढ़ावें और फिर पाठ करें। पाठ के नियम – प्रत्येक मंत्र के आदि और अंत में (ॐ) का उच्चारण अवश्य करें और हाथ में पुस्तक नहीं पकड़ें, लिखित पुस्तक ब्राह्मण के द्वारा लिखी गई ही काम में लेवें। अध्याय की समाप्ति पर ही रुवें बीच में नहीं रुवें। अगर विराम हो जाये तो अध्याय वापिस पढ़ें। ग्रन्थ के अर्थ को समझाते हुए, साफ-साफ उच्चारण करें तथा न तो जोर से और न धीरे से प़ढ़ें। उपसर्ग की शांति के लिए ३ पाठ करें। ग्रहपीड़ा या बड़ा भय उपस्थित होने पर ७ पाठ करें। राजा को वश में करने के लिए १ पाठ करें। वैरनाश के लिए १२ पाठ करें। स्त्री या पुरुष को वश में करने के लिए १४ पाठ करें। सुख और लक्ष्मी के लिए १५ पाठ करें। पुत्र-पौत्र और धन्यधान्य की वृद्धि के लिए १६ पाठ करें, वन सम्बन्धी भय में २० पाठ करें, बन्धनमुत्ति

शक्ति की आराधना का पव

भारतवर्ष में मनाए जाने वाले त्योहारों में नवरात्रा एक प्रमुख त्योहार है, यह वर्ष में दो बार होता है, पहला नवरात्रा चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष में एकम् से नवमी तक तथा दूसरा नवरात्रा आसोज महीने के शुक्ल पक्ष में एकम (प्रतिपदा) से नवमी तक होते हैं, इन दोनों नवरात्रियों में दुर्गा तथा कन्या की पूजा की जाती है। पूजन विधि : प्रतिपदा के दिन एक पट्टे पर देवी दुर्गा तथा गणेशजी की स्थापना की जाती है। नौ दिनों तक दीपक चावल रोली इत्यादि से देवी दुर्गा का पूजन होता है, जौ लगाया जाता है। नौ दिनों तक प्रतिदिन आरती की जाती है। दुर्गा का पाठ कर वुंवारी कन्या को भोजन भी कराया जाता है। अष्टमी के दिन देवी दुर्गा की कड़ाही होती है, जिसमें सीरा पूरी बनाया जाता है, उस दिन नौ वुँवारी कन्याओं को भोजन कराके, उन्हें सामथ्र्यानुसार दक्षिणा व कपड़ा दिया जाता है। अष्टमी तथा नवमी महातिथि मानी जाती है, कई लोग इस दिन रामायण भी पढ़ते हैं तथा हवन भी करते हैं। कथा : जनश्रुतियों में इस त्योहार के पीछे यह कथा प्रचलित है कि एक बार देवताओं और राक्षसों में सौ वर्षों तक युद्ध चलता रहा। अं देवताओं के राजा इंद्र थे और राक्षसों के महिषासुर, इस युद्ध में अंतत: देवता परास्त हो गए, पराजित देवगण भगवान शंकर तथा विष्णु के पास गए और अपनी आपबीती सुनाई, शंकर तथा विष्णु को असुरों पर बड़ा क्रोध आया। वहाँ विभिन्न देवताओं के शरीर से भारी तेज प्रकट हुआ जिसने एक नारी का रुप धारण कर लिया, देवताओं ने उस नारी की पूजा की तथा उसे अपने आभूषण व समर्पित किए, इस देवी के अट्ठाहास से पूरी पृथ्वी कांप उठी। महिषासुर अपने सैन्य बल समेत देवी का सामना करने के लिए गया, किन्तु देवी के हाथों मृत्यु का ग्रास बन गया, इस देवी ने शुंभ और निशुंभ नामक दो दैत्यों का भी वध किया। इस देवी के महान ओजस और पराक्रम से प्रभावित होकर देवतागण भी उसकी स्तुति करने लगे, यही देवी दुर्गा है, जिसके पूजन का त्योहार हम-सब मिलकर नवरात्रा के रुप में मनाते हैं।

के लिए अर्थात् वैद से छूटने के लिए २५ पाठ करें। असाध्य रोग में १०० पाठ करें, ‘‘वाराही तंत्र’’ के अनुसार १०० पाठ हर दु:साध्य कार्य के लिए करने चाहिए, अगर इसके साथ वेद-पारायण भी करें तो मनोकामना पूरी हो सकती है। अगर प्रतिदिन का बलिदान हो तो उसे पाठ के अन्त में करना चाहिए, ज्यादा आपद् हो तो एक दिन एक पाठ तथा दूसरे दिन दो पाठ करें, इसी तरह नवमी को नव पाठ करना शाध्सम्मत माना जाता है। कुमारी पूजन – कुमारी पूजन में एक वर्ष की कन्या न लेकर दो वर्ष से लेकर १० वर्ष तक की कन्या लेनी चाहिए, दो वर्ष की कन्या को ‘कुमारिका’ कहते हैं, तीन वर्ष की-त्रिमूर्ति’, ४ वर्ष की ‘कल्याणी’, ५ वर्ष की ‘रोहिणी’, ६ वर्ष की ‘काली’, ७ वर्ष की ‘चण्डिका’, ८ वर्ष की ‘शांभवी’, ९ वर्ष की ‘दुर्गा’ एवं १० वर्ष की भद्रा या सुभद्रा कहलाती है या तो इस तरह प्रतिदिन उसकी पूजा करें अथवा पहले दिन एक कन्या, दूसरे दिन २ व तीसरे दिन ३ कन्या, इस तरह ९वें दिन ९ कन्याएँ पूजी जाती है, यदि सभी कन्याओं का प्रबन्ध न हो तो एक ही कन्या की प्रतिदिन पूजा करें, यदि एक ही कन्या की पूजा करनी हो तो इस मंत्र से करें

?>