धर्म की ऐतिहासिक नगरी ‘लाडनूँ’
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राजस्थान के नागौर जिले का प्रसिद्ध नगर है `लाडनूँ’, जो राजस्थान के नागौर जिले के उत्तरी-पूर्वी छोर पर बसा हुआ है, इतिहास कहता है कि प्राचीन काल में यह गंधर्व वन कहलाता था, क्योंकि गांधार लोग यहां क्रीड़ा करने के लिए आते रहते थे। महाभारत काल में यह एक विशिष्ट सामरिक सुरक्षा स्थल माना जाता था, जिससे इसे महाभारत कालीन में ‘नागरी’ भी माना जाता है। थली प्रदेश, नौवंâूटी मारवाड़ एवम् शेखावाटी का संगम-स्थल यह कस्बा जोधपुर-दिल्ली रेलवे मार्ग पर स्थित है, समुद्र तल से यह ३२९ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।
‘लाडनूँ’ का प्राचीन नाम ‘चंदेरी’ भी रहा, इसके बारे में अभिमत है कि राजा शिशुपाल का वध होने पर उनके वंशज देश की राजधानी छो़ड़कर भागे। वे भागते-भागते गंधर्व वन ‘लांडनूँ’ तक पहँुचे, उन्हें यह स्थान अति सुरक्षित लगा, जिससे वे यहीं पर बस गये। शिशुपाल के वंशज चंदेल थे, चंदेल महाराजा चंद्रपाल को यह स्थान सामरिक एवम् आवासीय दोनों दृष्टिकोणोें से उपयुक्त लगा तथा उन्होंने वहाँ एक नगरी बसाई, जिसका नाम ‘चंदेली’ रखा, वही ‘चंदेली’ नाम सैकड़ों वर्षों के अन्तराल में ‘चंदेरी’ में परिणत हो गया, जो वर्तमान में ‘लाडनूँ’ नाम से प्रसिद्ध है।
‘लाडनूँ’ का अस्तित्व महाभारत काल से ही है, शिशुपाल वंशी डाहलिया पंवारो व बाद में बाग़िड़योें के आधिपत्य में यह ‘चंदेरी’ नगर कहलाता था, ‘चंदेरी’ के बाद इसका नाम ‘हेमावास’, हेवास एवम् ‘लाडनूँ’ पड़ा। विभिन्न ग्रंथों, खयातों के शिलालेखों पुरातात्विक अवशेषों के संदर्भ से इसका स्पष्ट ऐतिहासिक क्रम दसवीं शताब्दी से स्पष्ट होता है। विक्रम की १२ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ‘लाडनूँ’ पर मौहिल चौहानों का अधिकार हो गया था, जो चार शताब्दी तक चला, ईसा की सोलहवीं शताब्दी में जोधपुर के मालदेव राठौड़ ने ‘लाडनूँ’ हस्तगत कर लिया और तब से यह जोधपुर शासकों के अधिकार में ही रहा और आजादी के बाद रियासतों की विलय प्रक्रिया में नागौर जिले का अंग बन गया। नगर की स्थिति सार्थवाद (प्राचीन व्यापारिक मार्ग) पर होने से लगता है आक्रान्ताओं के नापाक इरादों ने इसको कितनी ही बार रौंदा और कितनी ही बार कुचला पर यह मिटा नहीं और न ही मिटी इसकी हस्ती, काल के थपेड़ों से गिरता उबरता यह नगर भग्नावशेषों से पुन: जीवित हो उठता, काल प्रवाह में यह कइयों का नजराना तो कइयों की जागीर बनता रहा और इसे कई नाम दिये गये और अन्त में लाड-प्यार से दी गयी पहचान ‘लाडनूँ’ पर आकर ठहर गयी और इसका नाम ‘लाडनूँ’ पड़ गया। यह शहर पश्चिमी भारत को उत्तरी भारत से जोड़ने वाले मार्ग पर पड़ता है, इसलिए यह प्राचीन काल के इस क्षेत्र के सभी युद्धों से प्रभावित रहा है। ‘नागौर’ पर विभिन्न शासकों के अधिकार से भी यह प्रभावित रहा है, पृथ्वीराज रासो एवम् िंफच ने ‘लाडनूँ’ को प्राचीन आगरा-अहमदाबाद मार्ग का प्रमुख बिन्दु बताया है। ‘लाडनूँ’ के प्रसिद्ध योद्धा व शासकों में अरडकमल भोजराज एवम् राव जयसिंह प्रमुख हैं। वीरांगनाओं में सूरजसिंह (सुरजन बाई) प्रख्यात हैं।
‘लाडनूँ’ अध्यात्म, कला, शिक्षा आदि के संगम का सुप्रसिद्ध नगर है, यह जन्मभूमि है बीसवीं सदी के शिखर महापुरुषों में एक राष्ट्रसंत आचार्य तुलसी की, जिनके अवदानों के लिए पूरे विश्व ने उन्हें ‘युग पुरुष’ बना दिया।
वर्तमान शहर के लगभग मध्य में स्थित गढ़ का निर्माण काल यद्यपि अज्ञात है (अभी नहीं है) फिर भी उसमें स्थित सबसे पुराना शिलालेख सन १०१० का था। गढ़ के ही भीतरी भाग में नंदी सवार उमा-महादेव की प्राचीन मूर्ति, तोरणयुुक्त प्राचीन देवी प्रतिमा सहित एक अन्य ध्वंसावशेष शिलालेख सं. १४२४ का था। प्राचीन जैन मंदिर में भगवान शांतिनाथ की मोहक मूर्ति पर सं ११३६ का लेख है। प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर में ही पल्लू में प्रणत मूर्तियों जैसी ही सर्वांग सुन्दर त्रिभंग मुद्रा में कमलासन पर खड़ी सरस्वती की चतुर्भुजी प्राचीन मूर्ति है, जिस पर सं. १२१९ का लेख खुदा है, धवल संगमरमर की विशाल शिलाओें से निर्मित आदिनाथ मंदिर यहाँ स्थित है। चार भुजानाथ मंदिर में चार भुजानाथ की दो श्यामवर्णी तोरणयुुक्त प्राचीन कलात्मक मूर्तियां हैं, जिनके सानिध्य में ही रथ-सवार सूर्य की दुर्लभ व मोहक मूर्ति भी प्राचीन शिल्प का उत्कृष्ट नमूना है। विशाल नागराज में लिपटे नीलकंठ महादेव का मंदिर दर्शनीय है।
‘लाडनूं’ का अपना अलग ही इतिहास है, इतिहास की दृष्टि से देखें तो बस स्टैंड के पास अनेक छतरीयाँ बनी हुई हैं, जिसमें सबसे बड़ी छतरी पर स. १८७३ वैशाख शुक्ला तृतीया का लेख है, जिसमें महाराजाधिराज जयसिंह से लेकर ‘लाडनूँ’ तक का इतिहास दिया हुआ है और स.१८३९ में हुए उमरकोट युद्ध का विवरण भी है, दूसरी चार छतरियों पर चरण पादुकाएं बनी हुई हैं, जिन पर स.१८७३ का शिलालेख है। ‘लाडनूँ’ स्थित प्राचीन जैन मंदिरों में विक्रम की बारहवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी तक के शिलालेख लगे हैं। बस स्टैंड स्थित दिगम्बर जैन चार भुजा मंदिर ‘सुख आश्रम’ कला का बेजो़ड़ नमूना है। वही शांतिनाथ श्वेताम्बर जैन मंदिर, बड़ा मंदिर, जैन मंदिर, उमरावशाह पीर दरगाह, प्राचीन चार भुजा मंदिर, हनुमान मंदिर आदि का भी अपना-अपना प्राचीन इतिहास है। तेरापंथ धर्मसंघ के सप्तम आचार्य श्री डालूगणी का समाधि स्थल भी ‘लाडनूँ’ में है। आचार्य श्री तुलसी के ही स्वप्न का फल है ‘पारमार्थिक शिक्षण संस्थान की स्थापना’, यह एक ऐसा संस्थान है, जहाँ तेरापंथ धर्म संघ में दीक्षित होने वाले साधु-सध्वियोें को दीक्षा पूर्व प्रशिक्षण मिलता है।
नगर की चार दरगाहों में सबसे प्राचीन दरगाह उमरशाह पीर की है, जिस पर हिजरी सन ७७२ का शिलालेख है। दो दरगाह एवम् १४ मस्जिदों में प्राचीन इबादतगाह हदीरा मस्जिद, जिस पर हिजरी सन् ७३० का शिलालेख है। राव दरवाजा एवम् राव कुआँ, राव जयसिंह के लोक कल्याणकारी कार्यों को प्रदार्शित करते हैं। अलाउदीन खिलजी के खजांची रनाधारणा की बनाई बावड़ी अब भी दर्शनीय है, जबकि हेमावास कालीन ‘हेमा बावड़ी’ पर बस्ती बस गयी है। ‘लाडनूँ’ के विभिन्न भवन भी वास्तु शिल्प के बेजो़ड़ उदाहरण हैं। अपनी स्वयं की विशिष्ट शैली के बावजूद शिल्पियों की बनायी शेखावाटी शैली की हवेलियाँ, राजपूत शैली के झरोखे एवम् मुस्लिम शैली की जालियाँ पुराने शहर क्षेत्र में अब भी निरंतर छटा बिखेर रही हैं, इन जालियों व झरोखों को विदेशों में भी भेजा जाता है। भवन निर्माण के उत्कृष्ट नमूनों में चन्दन निवास, जीवन निवास, बैंगानी हवेली, इनाणियां हवेली आदि उल्लेखनीय हैं, इसके साथ-साथ औद्योगिक क्षेत्र में ‘लाडनूँ’ का स्थान उल्लेखनीय है, खनन उद्योग में लाल पत्थर बाहर भेजा जाता है, पत्थर उद्योग में जाली-झरोखे स्तम्भ एवम् मेहराब यहाँ के कलात्मक उत्पाद हैं, यहाँ की ऊखल व मट्टी पंजाब व हरियाणा तक पहुंचती हैं। रंगाई-छपाई में चुनरी, पोमचा लहरिया तथा “लाडनूँ साड़ी’’ मध्यप्रदेश तक पहुंचती है। सबसे समृद्ध उद्योग के अंतर्गत पशुगाड़ियों के टायर व ऊँट छकड़ा निर्माण प्रमुख हैं, यहां की ऊंट गा़ड़ीयों की पंजाब हरियाणा एवम् उत्तरप्रदेश में अधिक मांग रहती है, लाख उद्योग में चूड़ियों का कार्य, हाथ-करघा उद्योग में निबार दरी, कालीन आदि का कार्य प्रमुख हैं। लौह उद्योग में यहां निर्मित लोहे की आलमारियां एवं बक्से राजस्थान से बाहर निर्यात किये जाते हैं। कुटीर उद्योग के अंतर्गत पाप़ड़, बड़ी एवम् पाचक गोलियों का कार्य प्रमुख है।
नगर में एक मान्य विश्वविद्यालय, एक महाविद्यालय, ५ माध्यमिक व उ.मा विद्यालय, १२ प्राथमिक एवम् १६ मान्यता प्राप्त अन्य विद्यालय एवम् मदरसे तथा ३ अनौपचारिक केन्द्र हैं। नगर में दो चिकित्सालय, दो रोग निदान केन्द्र, दो होम्योपैथी अस्पताल, दो आयुर्वेद अस्पताल, एक पशु चिकित्सालय, एक कबूतर खाना, १७ हजार पुस्तकों से समृद्ध एक पुस्तकालय, दो वाचनालय व २६ धर्मशाला, अतिथि भवन व मुसाफिर खाने भी यहाँ हैं, नगर का जलदाय विभाग चुरू जिले के गांवों को शमिल करते हुए ४२ गांवों की जल आपूर्ति करता है। विशाल गौशाला शुद्ध दुग्ध आपूर्ति के साथ-साथ, अपनी निजी कृषि भूमि से गौ संरक्षण का कार्य भी कर रही है। कस्बे में चार पोस्ट ऑफिस डाक व्यवस्था सँभाले हुए है। शहर के पुराने परकोटे व प्राचीन चार दरवाजों में से दक्षिणी राव दरवाजा शेष रहा है।
नगर सीमा पर सात मील की दूरी बनाए, छह प्राचीन स्तम्भ अब भी मौजूद हैं तथा दर्शनीय हैं। चंदेरी नगरी अनेक तपस्वी साधु-साध्वियों की जन्मभूमि है, जिन्होंने संयम एवम् त्याग के पथ पर चलकर अपने-अपने विशिष्ट योगदानों से सेवा की, विशेष उल्लेखनीय है। तेरापंथ संघ निदेशिका मातृहृदया साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी की मातृभूमि ‘लाडनूं’ है, जिन्होंने संघ एवम् नारी समाज को नये-नये आयाम दिये वे चिरस्मरणीय रहेंगे। ‘लाडनूँ’ नगरी शिक्षा एवम् शोध में उल्लेखनीय है। ‘जैन विश्व भारती’ का प्रादुर्भाव सन् १९७० में युग प्रधान आचार्य तुलसी की अंतश्चेतना और उनके मानवतावादी दृष्टिकोण तथा शिक्षा एवम् शोध में व्यक्तित्व निर्माण हेतु हुुआ। गणाधिपति गुरुदेव तुलसी के शब्दों में `जैन विश्व भारती’ समाज की कामधेनु है, संस्था की स्थापना का मुख्य उदेश्य था, एक ऐसे संस्थान का निर्माण, जहाँ जैन विधाओं एवम् अन्य प्राचीन विधाओं का प्रशिक्षण एव शोध कार्य तथा ‘जैन वैदिक’ से ईसाई, बौद्ध, इस्लाम, सिख आदि विभिन्न धर्मों एवम् दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, शिक्षा एवम् शोध का अनुपम स्थल, जहां विशेष रूप से प्राकृत एवम् जैन दर्शन का विशिष्ट अध्ययन व शोध संस्थान होने के अलावा यहां अहिंसा प्रशिक्षण, जीवन-विज्ञान प्रेक्षा ध्यान के राष्ट्रीय ही नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर ख्याति प्राप्त है। ‘जैन विश्व भारती’ विश्वविद्यालय, जिसमें आज सिर्फ जैन ही नहीं, अपितु जैनेत्तर लोग भी प्राचीन विधाओं के साथ धर्म दर्शन, कला, सहित्य, इतिहास एवम् संस्कृत का अध्ययन, अिंहसा शांति डिप्लोमा कोर्स आदि अनेक पाठयक्रमों से लाभान्वित हो रहे हैं। परिसर में दर्शनीय कला दीर्घा (आर्टगैलरी), वर्धमान ग्रंथागार, तुलसी अध्यात्म, सचिवालय, आचार्य तुलसी स्मारक एवम् उद्यान। सेवा भावी मुनि श्री भाई जी महाराज का समाधि स्थल, परिसर के परिपार्श्व स्थित दीर्घ तपस्विनी साध्वी श्री पन्नाजी का समाधि स्थल आदि दिव्य दर्शन की नगरी ‘लाडनूँ’ है।