भगवान परशुराम

एक बार कुछ किसान महाराजा अग्रसेन के पास पहुँचे, उन्होंने जंगली पशुओं द्वारा उपज को हानि से बचाने का महाराजा अग्रसेन से अनुरोध किया। महाराजा अग्रसेन ने कहा कि वह इस समस्या का निराकरण करेंगे, वह अपने कुछ सैनिकों के साथ जंगल में गए और वहां पर कृषि उपज को हानि पहुँचाना वाले मृगों व अन्य पशुओं को मार गिराया। जंगल से लौटते समय उनका सामना भगवान परशुराम से हुआ। परशुराम.

जंगल से लौटते समय उनका सामना भगवान परशुराम से हुआ। परशुराम महाराजा अग्रसेन को आशीर्वाद देने के पश्चात जंगल में आने का कारण पूछा। अग्रसेन ने उन्हें कृषकों की समस्याओं के बारे में जानकारी दी। वन-पशुओं को मारने की बात सुनते ही परशुराम आग-बबूला हो उठे और उन्होंने महाराजा अग्रसेन से कहा, ‘मैं तुम्हें एक अहिंसक नरेश के रूप में जानता था लेकिन पशुओं को मारकर तुमने अपराध किया है तुम अच्छी तरह जानते हो कि परशुराम हिंसा करने वाले क्षत्रियों का बैरी है, अब तुम्हें भी परशुराम के फरसे के नीचे आना होगा। महाराजा अग्रसेन ने परशुराम से अनुरोध किया कि मैं क्षत्रिय अवश्य हूँ, लेकिन मेरे जीवन का मुख्य लक्ष्य अहिंसा है’ आप कृपया मुझे क्षमा करें, किन्तु परशुराम ने उनकी एक भी नहीं सुनी और अपने फरसे से महाराजा अग्रसेन पर आक्रमण किया। महाराजा अग्रसेन चतुराई से अपने स्थान से तुरन्त हट गए और फरसा जमीन पर भयंकर आवाज के साथ धस गया। परशुराम और अधिक क्रोधित हो गए, उन्होंने महाराजा अग्रसेन से कहा कि तुमने अपनी बुद्धि चातुर्य से मेरे फरसे के वार से तो अपने आपको बचा तो लिया है लेकिन मुझे क्रोधित कर जो तुमने नया अपराध किया है उससे नहीं बच पाओगे। अग्रसेन ने पुन: परशुराम से क्षमा दान देने का अनुरोध किया और कहा ‘हे ऋषिवर! मैं जन्म से क्षत्रिय अवश्य हूँ लेकिन

निर्धन किसानों को बचाने के लिए मैंने जो कार्य किया है उसे आप हिंसा क्यों मानते हैं?’ परशुराम नहीं माने, उन्हें जन्म से ही क्षत्रियों से वैर था और क्षमा तो उनके स्वभाव में थी ही नहीं,अत: उन्होंने महाराजा अग्रसेन को नि:संतान रहने का श्राप दे दिया, महाराजा अग्रसेन ने बहुत अनुनय-विनय, किया किन्तु बिना कुछ सुने परशुराम जंगल की ओर चल दिए। महाराजा अग्रसेन को कुलदेवी महालक्ष्मी की याद आई, जिन्होंने उन्हें समृद्धि से परिपूर्ण होने का आशीर्वाद दिया था, महालक्ष्मी का स्मरण करते हुए आप राज महल में पहुँचे। अग्रोहा निर्माण : लोहागढ़ सीमा से निकलकर अग्रसेन ने पंचनद (वर्तमान में पंजाब) राज्य में प्रवेश किया, पंचनद में एक स्थान पर उन्होंने एक सिंहनी को शावक (हाल ही में जन्मा शेर बालक) को साथ खेलते देखा। अग्रसेन अपने गजराज पर बैठे उस शावक को देख रहे थे अचानक ही शावक उछला और गजराज के मस्तक पर आ बैठा। शावक को अचानक अपनी ओर उछल कर आते देख महावत भी नीचे गिर पड़ा। अग्रसेन ने शावक को उछलते हुए, महावत को गिरते हुए देखकर उन्हें अपने पिता की वह बात याद आ गई जिसमें उन्होंने वीर धरा पर एक नया राज्य बसाने की बात कही थी, वे वहीं गजराज से उतर पड़े, अपने साथ चल रहे ज्योतिषियों और पंडितों से उस स्थान के बारे में चर्चा की, सभी ने एकमत से कहा कि यह भूमि न केवल वीरभूमि है बल्कि चारों और हरी-भरी होने से कृषि उपज भी बहुत अच्छी होगी। अग्रसेन ने अपने सहयोगियों के साथ आसपास के क्षेत्रों का भी भ्रमण किया और उन्होंने देखा कि हर स्तर पर इस भूमि पर एक सुव्यवस्थित राज्य की स्थापना हो सकती है। प्रताप नगर से शूरसेन को बुलाया गया। पुरोहित व ऋषियों को बुलाकर सबसे पहले यज्ञ किया,यज्ञ के पश्चात भवन निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ। भवन निर्माण के कार्य प्रारम्भ के साथ ही उस वीर प्रसूता भूमि पर अग्रसेन ने अपना ध्वज फहराया। ध्वज फहराने के साथ ही अग्रसेन महाराजा बन गए, उन्होंने अपने भाई शूरसेन को तिलक कर प्रतापनगर प्रस्थान का तुम ही स्वामी हो, वहां के शासक के रूप में राज्य करो। राज्य व्यवस्था ऐसी सुदृढ़ और सुव्यवस्थित बनाओ जिससे राज्य की रक्षा के साथ-साथ प्रजा भी सुख- ने प्रतापनगर के लिए प्रस्थान किया। महाराजा अग्रसेन अपनी नई राजधानी को बसाने में पूरा ध्यान दे रहे थे। हर आगंतुक उनके लिए एक सम्मानित व्यक्ति था, लोकोक्ति एवं भाटों के गीतों के अनुसार उस समय महाराजा अग्रसेन ने

बस्तियां बसाई थी। ऋषि-मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नए राज्य का नाम आग्रेयगण (जिसे आज अग्रोहा के नाम से जाना जाता है) रखा गया और राजधानी का नाम अग्रोदक रखा गया। महाराजा अग्रसेन ने सभी प्रजाजनों को सुखी और सम्पन्न बनाने के लिए शासन से सभी तरह की सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करवाई। प्रजाजन भी महाराजा अग्रसेन के प्रति पूरी तरह से समर्पित थे। राज्य में ‘जिओ और जीने दो’ की कहावत पूरी तरह से चरितार्थ हो रही थी। महाराजा अग्रसेन की शासन व्यवस्था से पड़ोस के दूसरे राज्य भी अपने यहां पर अग्रोदक के समान नई व्यवस्था लागू कर रहे थे, अपने नए राज्य में अग्रसेन बहुत ही प्रसन्न थे।

विश्वमित्र का आगमन

महाराजा अग्रसेन राजदरबार में बैठे हुए थे। जाता, श्राप के कारण वह चिंतित से रहने लगे थे एक दिन दरबान ने आकर ऋषि विश्वमित्र के आगमन की सूचना दी। ऋषि के आगमन की सूचना पाकर महाराजा अग्रसेन नंगे पांव उनकी अगवानी के लिए बाहर आए, उनको स-सम्मान लाकर राजदरबार के उच्च आसन पर बैठाया और उनकी चरण वंदना की। ऋषि विश्वमित्र ने देखा कि महाराजा अग्रसेन के मन में जितना उत्साह है उतना चेहरे पर तेज नहीं है? ऋषि विश्वमित्र ने महाराजा अग्रसेन से पूछा कि ‘नरेश आपके मुख-मण्डल

पर जो तेज होना चाहिए वह क्यों नहीं है’ महाराजा अग्रसेन ने परशुराम से सामना होने व उनके द्वारा दिए गए श्राप की सारी घटना बताई, ऋषि विश्वमित्र ने कहा कि आर्य शत्रु को आप अपने बुद्धि बल से हराओ न कि शक्ति से। आपको पुन: कुलदेवी महालक्ष्मी की तपस्या करनी होगी और उनसे इस श्राप से मुक्त होने का वरदान मांगना होगा। यही आपकी समस्या का उचित समाधान है, आप यमुना के किनारे दोनों नासुताओं के साथ विष्णुप्रिया का ध्यान करें और उनसे संतान प्राप्ति का वरदान लें। महालक्ष्मी की आराधना : अग्रसेन ने विश्वमित्र का मार्ग-दर्शन के लिए आभार व्यक्त किया। यमुना के किनारे एक स्वच्छ जगह देखकर महाराजा अग्रसेन ने अपने लिए कुटिया बनवाई, वहां पर सभी ऋषि-मुनियों को निमंत्रित कर एक विशाल यज्ञ किया, यज्ञ सम्पन्न होने के पश्चात महाराजा अग्रसेन और दोनों रानियों ने निराहार रहने का संकल्प कर महालक्ष्मी के ध्यान में बैठ गए। महाराजा अग्रसेन और दोनों रानियों की कठिन तपस्या को देखकर महालक्ष्मी प्रकट हुर्इं। महालक्ष्मी ने अग्रसेन से वरदान मांगने को कहा, महाराजा अग्रसेन और दोनों रानियों ने विष्णुप्रिया को प्रणाम कर संतान का आशीर्वाद मांगा। महालक्ष्मी बोली, ‘मैं आप लोगों की तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ और अपना आशीर्वाद देती हूँ कि आपको जो संतान प्राप्त होगी वह युगों-युगों तक आपको अमर कर देगी, जब तक आपकी संतान मेरी पूजा करती रहेगी, तब तक आपके परिवार पर मेरी कृपा दृष्टि बनी रहेगी।’ महालक्ष्मी का वरदान पाते ही श्राप की काली छाया समाप्त हो गई, महाराजा अग्रसेन, महारानी माधवी और सुन्दरावती तीनों ने आहार ग्रहण किया और अग्रोहा की ओर प्रस्थान करने का निश्चय किया। संतान प्राप्ति : महालक्ष्मी के वरदान के पश्चात महाराजा अग्रसेन को १८ पुत्र और १८ पुत्रियां प्राप्त हुई। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे, संतान पाकर महाराजा अग्रसेन और दोनों रानियां बहुत ही प्रसन्न थीं, अब उनके जीवन में किसी प्रकार की चाह की लालसा नहीं रही महाराजा अग्रसेन ने पुत्रों को समुचित शिक्षा देने के लिए महर्षि गर्ग से अनुरोध किया। महर्षि गर्ग के मार्ग दर्शन पर १८ गुरूओं ने १८ राजकुमारों को सभी प्रकार की शिक्षाएँ दीं। सैन्य, राजनीति, लोक-व्यवहार और शासन व्यवस्था आदि की शिक्षाएँ राजकुमारों को मिली।

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