अहिंसा के अनन्य उपासक होने का गौरव पाने के बावजूद जैन समाज असि (तलवार), मसि (कलम-दवात) कृषि को
अपनाये रहा, किन्तु माहेश्वरी समाज ने असि एवं कृषि छोड़कर मात्र कलम-तराजू और वैश्य कर्म को समग्रभाव से
उजागर किया, इसी कारण व्यावसायिक जगत में माहेश्वरी समाज को अहंस्थान प्राप्त है।
माहेश्वरी समाज की जाति के अग्रदूत तपोधन श्री कृष्णदास जी जाजू के शब्दों में-‘यथार्थ बात क्या है? यह तो नहीं
कहा जा सकता, लेकिन राजपूताने की जितनी वैश्य जातियां हैं, वे मूल स्त्रोत में क्षत्रिय थीं, हमारे पूर्वज भी राजपूत थे
फिर वैश्य हुए। संभव है उस समय बौद्ध धर्म और जैन धर्म का प्रभाव पड़ा हो, पर यह बात निश्चित है कि हमने वैश्य
कर्म स्वीकार किया और इस प्रकार यह परिवर्तन हुआ, जैसी भी घटना घटी हो, लेकिन हमारे पूर्वजों का वैश्य कर्म
स्वीकार करना बहुत हिम्मत का काम था, जहां हम छोटी-छोटी बातों में परिवर्तन करने से घबराते हैं, वहां एक वर्ण को
छोड़कर दूसरे वर्ण को ग्रहण करना कितना कठिन कार्य था, यह सहज ही समझा जा सकता है? जागाजी अंबालाल
मोतीराम झड़ोल निवासी की बहियां यह भी बताती हैं कि उसके बाद भी समय-समय पर बहुत सी क्षत्रिय जातियां
आकर माहेश्वरी समाज में मिली हैं और इस तरह माहेश्वरी समाज ने समय को पहचान कर सबको अपने में शामिल
कर लिया तथा समय के साथ चलने में शक्ति लगायी, इसी कारण कहा जा सकता है कि उस समय माहेश्वरी समाज
के साथ रहा है क्योंकि माहेश्वरी इतने मौलिक हैं- जितना स्वयं सृजन है।
नवजागरण की प्रथम ज्योति
वैश्य महासभा सन् १८९२ में स्थापित हुई, उसने उत्तर भारत में वैश्य समाज को एक सूत्र में संगठित करने का प्रयास
किया लेकिन वैश्य महासभा का एकाकी संगठन वैश्य समाज को, जो कि अनेक जाति, उपजातियों में विभाजित है,
प्रगति देने के लिए नाफाफी था, अत: विविध वैश्य उपजातियों में अपने पृथक संगठन बनाने की भावना पैदा हुई। पुराने कागजात और इतिहास सामग्री से यह सिद्ध होता है कि सामाजिक जागृति की सर्वप्रथम ज्योति माहेश्वरी
समाज में सन् १८९२ में प्रकट हुई, जबकि अजमेर में स्वनामधन्य रा.ब.श्यामसुंदर लाल जी लोईवाल, दीवान
किशनगढ़ राज्य से सदुद्योगों के लिए माहेश्वरी महासभा की स्थापना हुई।
भारत में माहेश्वरी समाज ही पहला संगठन है, जिसने बालविवाह का निषेध किया एवं इसके प्रस्ताव से प्रेरित होकर
समाजसेवी दिवान बहादुर श्री हरि विलास जी शारदा (अजमेर) ने इस आशय का कानून केन्द्रीय असेम्बली में प्रस्तुत
किया, जो ‘शारदा एक्ट‘ के नाम से विख्यात है। श्री हरि विलास जी शारदा एवं उनका परिवार प्रारंभ से ही माहेश्वरी
महासभा से संबंध रहा है।
माहेश्वरी महासभा की स्थापना
माहेश्वरी महासभा का संगठन सन् १९०० ई. में शिथिल हो गया और उसके अधिवेशनों की शृंखला टूट गई, लेकिन
इस संस्था ने समाज में जन जागृति की जो ज्योति प्रदीप्त की थी, वह जगमगाती रही। जगह-जगह सभाओं और
पंचायतों ने समाज सुधार का काम उठा लिया, लेकिन वे सब स्थानीय संगठन थे, उनसे सारे देश के माहेश्वरीयों को
एकसुत्र में संगठित नहीं किया जा सकता था। समाज के देशव्यापी संगठन के लिए राष्ट्रीय संस्था खड़ी की जाये। सेठ
रामनारायणजी राठी, सेठ दामोदर दास जी राठी, तपोधन श्रीकृष्णदास जी जाजू ने अमरावती में सेठ गणेशदास जी
राठी के सहयोग से वि.स.१९६४ अर्थात् सन् १९०८ में ‘माहेश्वरी महासभा’ की स्थापना की।
अमरावती अधिवेशन में कन्या विक्रय, औसर-मौसर, अश्लील गान, वेश्या नृत्य आदि कुप्रथाओं पर प्रबल प्रहार करते
हुए, सामाजिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने का श्री गणेश हुआ। माहेश्वरी बंधुओं ने समाज के कल्याण की ओर
ध्यान देना प्रारंभ किया और जगह-जगह कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठने लगी।
शिक्षा कोष, शिक्षा ट्रस्ट एवं शिक्षा केन्द्र का प्रारंभ
माहेश्वरी महासभा का द्वितीय अधिवेशन सन् १९१२ में नागपूर में हुआ, इस अधिवेशन में ब्यावर निवासी देशभक्त
सेठ दामोदरदासजी राठी के प्रयत्न से शिक्षाकोष की स्थापना हुई।
सामाजिक कुरीतियों का निषेध करने के साथ-साथ शिक्षा संबंधी कार्य करने की दृष्टि से विचार करने एवं तदनुरूप
संगठन करने हेतु कमेटियां भी गठित हुईं।
नागपूर महासभा के अवसर पर उपस्थित पोकरण फलौदी के पंचों ने महासभा के नियमानुसार न्यात के ठहराव
करवाये। महासभा के नागपूर अधिवेशन के अध्यक्ष ने केवल उन्हें प्रोत्साहित ही नहीं किया, वरन् उनके काम को
आगे बढ़ाने में हेतु उपेक्षित सहयोग देने की घोषणा भी की जिससे प्रथम शिक्षा ट्रस्ट स्थापित हुआ, इस ट्रस्ट ने भी
कुछ समय तक पोकरण में शिक्षा प्रचार का काम किया, इसी अधिवेशन की प्रेरणा से मारवाड़ी शिक्षा मंडल, वर्धा की
स्थापना हुई। इस प्रकार महासभा के द्वितीय अधिवेशन में प्रथम शिक्षा कोष, प्रथम ट्रस्ट और प्रथम विद्यालय की रूपरेखा स्पष्ट
हुई जिससे बालक-बालिकाओं को शिक्षण देने और उनमें धार्मिक, नैतिक और गृहकार्य संबंधी शिक्षा पाने की भावना
जगाने का कार्य हुआ। जगह-जगह पंचायतें कायम हुईं, रीति-रिवाज निश्चित हुए। सामाजिक सुधार के लिए धन
संग्रह करने और उसकी व्यवस्था करने की दृष्टि से कमेटियां बनीं, इसके साथ ही औसर संबंधी नियम समान रूप से
लागू करने की बात ध्यान में आई और यही द्वितीय महासभा अधिवेशन की सफल फलश्रुति रही।
‘माहेश्वरी महासभा’ के नागपुर अधिवेशन के पश्चात् १९१३ में श्री भागीरथदासजी भूतड़ा आदि के प्रयत्नों से अलीगढ़
में श्री जैसलमेरी माहेश्वरी महासभा स्थापित हुई। १९१४ में इस सभा ने अपना नाम माहेश्वरी सभा रख दिया और
१९१५ में श्री माहेश्वरी महासभा। मेरठ अधिवेशन में इसके प्रतिनिधियों ने बीकानेरी, जैसलमेरी, पोकरणी, फलौदी
और देशवासी माहेश्वरियों में विवाह संबंध खोलने की मांग की। १९१६ में संपन्न अधिवेशन में इस महासभा का
कार्यालय अलीगढ़ से दिल्ली ले जाने एवं कार्यक्षेत्र को व्यापक करने का निर्णय हुआ।
रोटी-बेटी के व्यवहार में उदारता बरतने की सिफारिश
उधर पूर्वागत माहेश्वरी महासभा का तीसरा अधिवेशन १९१७ में पाली में हुआ, जिसमें गुजरात के माहेश्वरी समाज
की ओर से सीधा प्रश्न रखा गया कि सैकड़ों वर्षों से मारवाड़ से सम्पर्क न रहने के कारण जो पारस्परिक व्यवहार नहीं
रहा है, उसे प्रारंभ किया जाए और पारस्परिक परिचय बढ़ाया जाये? बिना परिचय बढ़े रोटी-बेटी का संबंध वैâसे हो?
पाली अधिवेशन में पहली बार महासभा की कार्यकारिणी समिति का चुनाव हुआ तथा उसका नाम ‘माहेश्वरी मण्डल’
रखा गया।
अलीगढ़ में गठित महासभा का अधिवेशन १९२० को कोलकत्ता में हुआ, उसमें उपस्थिति बहुत कम रही तब माहेश्वरी
समाज में यह चर्चा उठी कि समाज में दो सभाओं की आवश्यकता क्या है? दोनों सम्मिलित हो जानी चाहिए।
माहेश्वरी महासभा ने भी इस पर ध्यान दिया। तपोधन श्री कृष्णदासजी जाजू ने श्री माहेश्वरी महासभा अध्यक्ष को
विस्तृत पत्र लिखकर एकीकरण की भूमिका बनाई, जिसे श्री माहेश्वरी महासभा ने अपने अलवर अधिवेशन में
स्वीकार कर लिया।
राष्ट्रीय आंदोलन का सक्रिय समर्थन
माहेश्वरी महासभा का चतुर्थ अधिवेशन १९२१ को अकोला में हुआ। वहां सर्वसम्मत प्रस्ताव द्वारा महासभाओं के
सम्मिलित होने की घोषणा कर दी गई, वहीं पहली बार ‘माहेश्वरी महासभा’ के उद्देश्य एवं नियम सामने आये।
अकोला अधिवेशन में सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक विषयों की चर्चा हुई और निम्न प्रस्ताव पारित हुए:-
सत्याग्रह में भाग लेने वालों का प्रोत्साहन
महासभा का कार्य जैसे-जैसे बढ़ता गया और स्थान-स्थान पर इसके प्रस्तावों के परिप्रेक्ष्य में चर्चा वार्ताएं, सभा-
संगोष्ठियां हुईं, वैसे-वैसे माहेश्वरी समाज में जीवन और जागृति की लहर बढ़ती गई, इस समाज ने न केवल
सामाजिक बुराईयों के खिलाफ संघर्ष प्रारंभ किया, वरन राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय साथ देना शुरू कर दिया। आम
आदमी के लिए भी इस समाज ने यह स्पष्ट किया कि वह जहां रहता है, वहीं रहकर रचनात्मक काम करे। वस्त्र की
कमी की संभावना को देखते हुए महासभा ने एक ओर जहां विदेशी कपड़ों के बहिष्कार की अपील की वहीं मील के
कपड़े की अपर्याप्तता को मद्देनजर रखते हुए चरखा कातने और ग्रामोद्योगी वस्तुएं इस्तेमाल करने का भी आग्रह
रखा। इन सारी बातों में महासभा का राष्ट्रीय स्वरूप पूरी तरह उजागर हुआ, समाज के सभी वर्गों ने उसका अभिनंदन
किया और तन-मन-धन से स्वीकृत प्रस्तावों के अनुरूप कार्य करने में कृतार्थता मानी।
स्वतंत्रता संग्राम के बीच महासभा का छठा अधिवेशन १९२३ में इन्दौर में हुआ, वहां खुली अपील की गई कि माहेश्वरी
बंधु सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने हेतु त्याग एवं वीरता की भावना के साथ आगे बढ़ें और लोकमान्य तिलक के
शब्दों में ‘जन्म सिद्ध अधिकार स्वराज्य‘ को प्राप्त करने में आजादी की भावना का साथ दें।
वाणिज्य उद्योग कम्पनी धंधों की ओर झुकाव
माहेश्वरी समाज खण्डेला के राजा खड़गलसेन के पुत्र सुजानकंवर एवं उनके उमरावों द्वारा कृपाण त्याग कर तराजू
हाथ में लेने जैसी घटना से ऐतिहासिक मोड़ ले चुका था, उनके साथ चौहान, पंवार, कछवाहा, पड़िहार आदि क्षत्रिय
जातियां अपने आप में माहेश्वरी वैश्यों में शामिल कर चुकी थीं और इस तरह लगातार शामिल होने वाले समान धर्मी
भाई वैश्य कर्म को नये-नये आयाम देते हुए आगे बढ़ रहे थे। परंपरा के अनुरूप कोलवार भी अपने को माहेश्वरी कहने
लगे, अत: महासभा का सप्तम अधिवेशन १९२४ बम्बई में हुआ जहाँ यह प्रश्न खड़ा हुआ कि कोलवारों को माहेश्वरी
माना जाये कि नहीं? जागाजी अंबालाल मोतीराम (कस्तूरचंद शंकरलालजी) की बहियों से छ: माह तक खोजबीन करवाई गई कि कोलवार माहेश्वरी हैं या नहीं ? उनके साथ रोटी-बेटी का संबंध हो या नहीं? पक्ष-विपक्ष में तरह-तरह
की दलीलें आयीं। अधिवेशन का वातावारण अशांत बना। पंचायत पक्ष ने सामाजिक बहिष्कार का उपयोग कर मत
स्वातंत्र को दबाने की चेष्टा की, उससे मतभेदों की तीव्रता बढ़ी। फलत: अधिवेशन बीच में ही समाप्त कर देना पड़ा,
लेकिन समाप्ति से पूर्व भीतर थी और हमारे पूर्वजों ने इस शक्ति के बल पर बड़े-बड़े कार्य किये। हाल में कोलवार
प्रकरण में हमारे समाज की फिर परीक्षा हुई, प्रश्न था कि कोलवार माहेश्वरी हैं या नहीं? महासभा ने तब निर्भीकता का
परिचय देते हुए मान लिया कि कोलवार माहेश्वरी हैं। महासभा भले ही सुधार मार्ग पर दौड़कर अग्रसर न हुई हो, पर
आगे कदम रखकर पीछे नहीं मुड़ी।
अन्तर्जातीय संबंध खुले
अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा का तेरहवां अधिवेशन सूरत में १९४० को हुआ। उपस्थिति एवं प्रगतिशील
विचारों की दृष्टि से यह बहुत ही सफल रहा। देश के कोने-कोने से माहेश्वरी बंधु इस अधिवेशन में सम्मिलित होने
पहुंचे और समाज के अलग-अलग समुदायों के मिलन रूपी भागीरथी में अवगाहन करके वे कृतार्थ हुए, इस अधिवेशन
के अध्यक्ष जी ने भारत की देशी रियासतों के निरंकुश शासन की आलोचना करते हुए कहा कि आज यहां की प्रजा
अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही है। देशी राज्यों की प्रजा अब जाग उठी है और वह अधिक समय
तक आगे निरंकुश शासन प्रणाली बर्दाश्त करना नहीं चाहती। देशी राज्यों में जारी आंदोलन को हमारे समाज ने काफी
सहयोग दिया है। हमारी महासभा ने आज तक कांग्रेस के आदर्शों और सिद्धांतों के अनुरूप कार्य किया है। वह भी
मानी हुई बात है कि राष्ट्र की स्वतंत्रता एवं सम्मान की रक्षा के लिए कांग्रेस जो नीति निश्चित करेगी, माहेश्वरी
महासभा और माहेश्वरी समाज अन्य समाजों की तरह उस पर श्रद्धापूर्वक अमल करेगा, मेरा यह निश्चित मत है कि
जहां राष्ट्रहित की रक्षा और सम्मान का प्रश्न उपस्थित हो, वहां हमें अपने जातिहित को छोड़कर राष्ट्रहित की रक्षा
करनी चाहिए।
इस अधिवेशन में राष्ट्रोन्नति के कार्य में जुटने, बेकारी दूर करने हेतु अखिल भारतीय चरखा संघ द्वारा प्रमाणित
खादी अपनाने और यथाशक्ति ग्रामोद्योग वस्तुओं का उपयोग करने से संबंधित प्रस्ताव हुए, इनमें सबसे अधिक
आकर्षित करने वाला प्रस्ताव यह हुआ कि जैसलमेरी, पोकरणी, बीकानेरी, कोलवार, नागौरी, गुजराती, कच्छी, सिंधी
आदि समुदायों में आपस में विवाह संबंध करने में किसी प्रकार की आपत्ति न समझी जाये, साथ ही महासभा ने
माहेश्वरी भाइयों से प्रार्थना की कि वे भिन्न-भिन्न समुदायों में पारस्परिक विवाह संबंध की संकीर्णता नष्ट करने में
सहयोगी बनें।
देश की संकटपूर्ण स्थिति में स्वस्थ सहयोग
सूरत अधिवेशन के बाद देश की राजनीतिक स्थिति बहुत ज्यादा उथल-पुथल वाली रही। १९४१ में महात्मा गांधी ने
व्यक्तिगत सत्याग्रह आरंभ किया था, जिसमें द्वितीय महायुद्ध तथा अंग्र्ोज सरकार विरोधी प्रचार करते हुए
कार्यकर्ता बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां दे रहे थे। ८ अगस्त १९४२ को महात्मा गांधी ने ‘भारत छोड़ो’ का नारा दिया और
जनता से अनुरोध किया कि अंग्रेजी शासन की दासता का अंत करने हेतु आगे आयें। आंदोलन के समाचार बिजली की तरह सारे देश में पैâल गये। अंग्रेज सरकार ने राष्ट्र के सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिये। धूत जी की
अनुपस्थिति में तपोधन जाजू जी को अध्यक्ष का स्थान ग्रहण करने की प्रार्थना की गई, किन्तु वे भी ९ सितंबर को
गिरफ्तार कर कृष्ण मंदिर भेज दिये गये। जाजू जी के बाद श्री ब्रज वल्लभदास जी मूंदड़ा ने महासभा के सभापतित्व
का भार वहन किया, उनकी कार्यवधि में १९४६ में चौदहवां ग्वालियर अधिवेशन आयोजित हुआ।
अधिवेशन में सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रस्ताव स्वीकृत हुए। प्रस्तावों में जो भावना व्यक्त हुई, वह इस
प्रकार है:
स्वर्ण जयंती के रूप में आयोजित ग्वालियर अधिवेशन में इस बात पर गहराई से विचार हुआ कि जहां पहले महासभा
को कन्या विक्रय का विरोध करना पड़ रहा था, वहां अब वर विक्रय की समस्या सामने आ गई है। प्रतिनिधियों ने इसी
कारण चिंता व्यक्त की कि समाज में दहेज के कारण कन्याओं के लिए सुयोग्य वर मिलने कठिन हो गये हैं,
अधिवेशन में सर्वसम्मति से यह मान्य किया गया कि समाज को वर विक्रय का खुला विरोध करना चाहिए। महासभा
ने देश के नेताओं को भी सचेत किया कि वे भारत का विभाजन न होने दें।
नवनिर्माण का संकल्प
१५ अगस्त १९४७ को भारत आजाद हो गया। आजादी का आनंद करोड़ों देशवासियों के लिए बहुत सुखकर नहीं रहा,
क्योंकि देश विभाजित हो गया और हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के नाम पर होने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगों ने शांतिप्रिय
नागरिकों का सुख चैन छीन लिया। देश की सारी शक्ति साम्प्रदायिक उपद्रवों को शांत करने तथा उजड़ कर आये
परिवारों को बसाने में लगी। स्वयंसेवी सेवाएं भी अपने अलग-अलग होने वाले कार्यक्रम छोड़कर पुर्नवास के काम में सहयोगी बन गयीं, ऐसी हालत में महासभा के अधिवेशन टलते गये, ठीक १५ वर्ष बाद १९६१ में महासभा का पन्द्रहवां
अधिवेशन दिल्ली में हुआ, अधिवेशन में शरीक होने के लिए इन्दौर से नवयुवकों की टोली साइकिल यात्रा कर गांव-
गांव में माहेश्वरी भाइयों को आमंत्रित करती हुई दिल्ली पहुंची, जिसका बहुत अच्छा परिणाम निकला, जगह-जगह से
नये चेहरे, नया उत्साह और नया संकल्प लिए अधिवेशन में भाग लेने लोग दिल्ली पहुंचे। दो हजार से अधिक
प्रतिनिधियों एवं एक हजार से अधिक दर्शकों की उपस्थिति में यह अधिवेशन दिल्ली के रामलीला मैदान में हुआ
जिसमें नवनिर्माण का संकल्प ध्वनित हुआ।
अध्यक्षजी ने सबकी भावनाओं को अभिव्यक्ति देते हुए कहा कि प्राचीन भारत में चातुरवर्ण्य व्यवस्था थी, उसके
शिथिल हो जाने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के स्थान पर हजारों जातियां, उपजातियां हो गयी थी। जातिवादी
संकीणर्ता के चलते राष्ट्रीय एवं मानववादी आस्थाओं को आघात पहुंचा तथा आपसी मतभेद बढ़े, इसलिए नवनिर्माण
का तकाजा है कि हम गुणों पर आश्रित जाति व्यवस्था को मान्य करें, जिससे देश एक सूत्र में संगठित रह सके।
आजाद भारत के नागरिकों की मानसिक दुर्बलताओं की ओर इंगित करते हुए अध्यक्षजी ने कहा कि आत्मविश्वास
और स्वावलम्बन की भावना छोड़ने की वजह से हम प्रत्येक कार्य में अपने से भिन्न ईश्वर, देवी-देवता, भूत-प्रेत, ग्रह-
नक्षत्र आदि अदृश्य कल्पित शक्तियों का आश्रय लेने लगे हैं जो कि ठीक नहीं है। अंधविश्वास तथा सामाजिक रूढ़ियों
का परित्याग किये बिना स्वाधीन देश में हम नवनिर्माण की आधार शिला नहीं रख पायेंगे। अध्यक्षजी ने सामाजिक
सुधारों के लिए महासभा द्वारा किये जा रहे प्रयत्नों की चर्चा करते हुए दहेज की कुप्रथा पर प्रकाश डाला और कहा कि
युवक दहेज को जहर का प्याला समझें और जहां दहेज मांगा जाता हो, वहां कन्याएं अपना विवाह करने से इंकार कर
दें।
जाजू ट्रस्ट की महत्वपूर्ण योजना का भरपूर स्वागत हुआ, इसके लिए अपेक्षित राशि तत्काल मिल गयी, कार्य के
अनुरूप और राशी मिलते जाने से इस ट्रस्ट ने अनेक उल्लेखनीय कार्य किये जो कि आज भी कर रहा है, यह ट्रस्ट एक
प्रकार का शुद्ध सामाजिक कोष है। दिल्ली अधिवेशन में लघु उद्योगों के प्रचार के लिए महासभा ने ‘औद्योगिक
ब्यूरो की स्थापना’ का भी निश्चय किया, इस प्रकार निश्चयात्मक भूमिका में दिल्ली अधिवेशन की कार्यवाही
नवनिर्माण का संकल्प क्रियान्वित करने की सफल संयोजना के साथ सम्पन्न हुई।
व्यावसायिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का अभियान
महासभा का १६ वां अधिवेशन १९६७ को बीकानेर में हुआ, इस अवसर पर अधिवेशन स्थल पर पहली बार लघु
औद्योगिक प्रदर्शनी लगायी गयी, प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए राजस्थान के तत्कालीन उद्योग मंत्री ने माहेश्वरी
समाज के उद्योगपतियों से अनुरोध किया कि वे राजस्थान में अपने उद्योग-धंधे स्थापित करें, सरकार उन्हें सब
प्रकार की सुविधाएं प्रदान करेगी।
बीकानेर अधिवेशन में समाज के बंधुओं से अपना रहन-सहन सादा और आडम्बररहित रखने तथा अपने वैभव का
प्रदर्शन न करने की अपील की, साथ ही यह भी अनुरोध किया कि वे अन्य प्रदेशों की भांति राजस्थान में भी अपने
उद्योग धंधे स्थापित करें। जातीय संगठनों में रूचि लेने वालों की कमी होती देखकर अध्यक्ष महोदय ने युवकों से आग्रह किया कि वे इन
संगठनों में सक्रिय हिस्सा लें, अपने इस बात का खंडन किया कि जातीय संगठन राष्ट्रीय प्रगति के लिए उपयोगी नहीं
है। राष्ट्र की बहुमुखी प्रगति को न्याय देने के लिए जरूरी है कि प्राथमिक इकाई के रूप में जातीय संगठनों को प्रभावी
बनाया जाए, उनका उद्देश्य संकीर्ण हितों की रक्षा करना नहीं, वरन् राष्ट्र के हित में कार्य करना है। महासभा ने दहेज
दिखावा आदि के विरोध में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किया:
‘समाज में विवाह संबंधों के अवसर पर किए जाने वाले ठहरावों के विभिन्न रुपों को महासभा सदा हीन दृष्टि से देखती
आई है और इनमें आमूल-चूल परिवर्तन करने हेतु प्रयत्नशील है। माहेश्वरी महासभा का अधिवेशन समाज को पुन:
सावधान करता है कि वह ठहराव और विवाह के समय किए जाने वाले दहेज के आदान-प्रदान तथा प्रदर्शन का तुरंत
अंत करे, ताकि सभी वर्ग के लोगों को विवाह जैसा आनंदमयी प्रसंग भारस्वरूप न मालूम हो।’
बीकानेर अधिवेशन ने एक प्रस्ताव द्वारा बाल विवाह प्रतिबंधक कानून-शारदा एक्ट के प्रणेता स्व.दीवान बहादुर
हरविलास जी शारदा की जन्म शताब्दी ३ जून १९६८ को मनाने का निश्चय किया, इसी प्रकार महासभा की
नियमावली के संशोधित प्रारूप को स्वीकृत और क्रियान्वित करने का अधिकार भी कार्यकारी मंडल को दिया।
सर्वांगीण विकास के लिए पंचसूत्री कार्यक्रम
महासभा का सत्रहवां अधिवेशन सन् १९७२ में कलकत्ता में हुआ, इस अधिवेशन में गंभीर विचार चर्चा के पश्चाात्
समाज के सर्वांगीण विकास के लिए पंचसूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत हुआ, जिसमें निम्नलिखित विषयों का
समावेश है-
कलकत्ता अधिवेशन मुख्यत: समाज को क्रियाशील बनाने की दृष्टि से बहुत ही प्रभावशाली रहा। प्रतिनिधियों ने
स्थान-स्थान पर स्थानीय संस्थाएं खड़ी करने, प्रांतीय क्षेत्रीय कार्यकर्ता सम्मेलन करने, प्रशिक्षण सत्र चलाने आदि
की प्रेरणा प्राप्त की। सबको यह एहसास हुआ कि धनाभाव के कारण समाज की एक भी लड़की शिक्षा से वंचित क्यों
रहे? हर लड़की कम से कम मैट्रिक व लड़का ग्रेजुएशन तक की शिक्षा अवश्य प्राप्त करे। समाज के लोगों ने भी महसूस
किया कि वे विविध शिल्प, कला और उद्योग का प्रशिक्षण प्राप्त कर न केवल स्वयं स्वावलंबी बनें, वरन् दूसरों को भी
स्वावलंबी बनाने में सहभागी रहें। शारिरिक श्रम पर आधारित व्यवसाय, रोजगार या नौकरी को हीन दृष्टि से न देखें,
इसके अलावा साहित्य, खेलकूद, अभिनय, नाटक, लेखन, वाद-विवाद प्रतियोगिता और कला आदि क्षेत्र में भी सबको आगे बढ़ाने का संबल मिला। कलकत्ता अधिवेशन में एक और महत्वपूर्ण अध्याय शुरू हुआ, जिसके अनुसार समाज
के वयोवृद्ध लोगों को अभिनंदित किया गया। बड़े बुजुर्गों के प्रति आदरभाव रखने की यह परिपाटी सभी लोगों ने
पसंद की।
कलकत्ता अधिवेशन ऐसे समय में हुआ, जब राजस्थान व गुजरात में सूखा के कष्टों से जनता त्रस्त थी, इसी कारण
विशेष अपील कर माहेश्वरी बंधुओं से आग्रह किया गया कि वे सूखाग्रस्त क्षेत्रों की जनता की सहायता करें व मूल्यों
को न बढ़ने दें। अपनी सर्वतोमुखी प्रगति व विकास के लिए स्नेहसूत्र में सबको आबद्ध करने की व्यावहारिक योजना
पाकर सबने महसूस किया कि वे अपनत्व अभिवृद्धि करेंगे और समाज के समाधान के अनुरूप आचरण करेंगे, ताकि
उनके व्यवहार से अन्य लोग भी प्रेरणा प्राप्त कर सकें। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस अधिवेशन से प्रांतीय
सभाओं को बल मिला और जगह-जगह बढ़-चढ़कर नवनिर्माण का कार्य किया जाने लगा।
नया मोड़
महासभा का १८ वां अधिवेशन सन् १९७३ को में नागपुर में आयोजित हुआ, सम्मेलन में भाग लेने लगभग ५०००
प्रतिनिधि पहुंचे। सम्मेलन स्थल पर औद्योगिक प्रदर्शनी लगायी गयी, इस प्रदर्शनी में लगभग ७०-७५ औद्योगीक
प्रतिष्ठानों ने अपने विविध उत्पादनों का प्रदर्शन कर समाज के लोगों को उद्योग क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी,
प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए महाराष्ट्र के तत्कालीन उद्योग मंत्री ने माहेश्वरी समाज के उद्योगपतियों से अनुरोध
किया कि वे महाराष्ट्र में औद्योगिक प्रतिष्ठान खड़े करें, वैसे प्रतिष्ठानों को महाराष्ट्र सरकार की ओर से हरसंभव
सुविधाएं उपलब्ध कराने का भी आश्वासन दिया गया। नागपूर अधिवेशन में महासभा के अंतर्गत महिला व युवा
संगठनों को व्यवस्थित रूप दिया गया और कार्यकारी मंडल के सदस्यों की संख्या दो सौ से बढ़ाकर चार सौ कर दी
गई। इस प्रकार जहां सारे देश में केन्द्रीयकरण की भावना के साथ कार्य करने का अखंड प्रवाह चल रहा था, वहां
नागपुर अधिवेशन महासभा को नया मोड़ देने वाला सिद्ध हुआ और इससे न केवल बुजुर्ग वरन् युवक और महिलाएं
भी संपूर्ण उत्तरदायित्व के साथ समाज की प्रगति के लिए मोर्चा संभालने की भावना से कटिबद्ध हुई और आज भी कर
रही हैं।
सोनी, सोमाणी, जाखेटिया, सोढाणी, हरकुट, न्याती, हेड़ा, करवा, कांकाणी, मालू, सारडा, काहाल्या, गिलड़ा, जाजू,
बाहेती, बिहाणी, बिदादा, बजाज, कलंत्री, कासट, कचौलिया, कालाणी, झंवर, काबरा, डाड, डागा, गट्टानी, राठी,
बिड़ला, दरक, तोषनीवाल, अजमेरा, भण्डारी, छापरवाल, भट्टड़, भूतड़ा, बंग, अटल, इनाणी, भराड़िया, भंसाली, लढा,
मालपाणी, सीकची, लाहोटी, गदइया, गगराणी, खटोड़, लखोटिया, असावा, चेचाणी, माणधन्या, मूंदड़ा, चौखड़ा, चांडक, बल्दवा, बाल्दी, बूब, बांगड़, मंडोवरा, तोतला, आगीवाल, आगसूड़, परताणी, नावंधर, नुवाल, पलोड़, तापड़िया,
मणिहार, धूत, धूपड़, मोदाणी, पोरवाल, मंत्री, देवपुरा, नौलखा, टावरी