मानव संपदा का अधिकतम उपयोग होना चाहिए
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मानव संपदा का अधिकतम उपयोग होना चाहिए
पत्रकार कभी रिटायर नहीं होता, ऐसा कुछ दिन पहले कहीं पढ़ा था, पढ़कर बड़ा अच्छा लगा, मेरा तो यह मानना है कि कोई भी व्यक्ति, जब तक कार्य कर सकता है उसे रिटायर नहीं होना चाहिए, हमारी सामाजिक पद्धति कुछ इस प्रकार की है कि यदि आप ६० -६२ वर्ष के हो गए हैं तो जिस संस्था में आप कार्य कर रहे हैं, उससे आपकी अनिवार्य निवृत्ति कर दी जाती है, जो एक हद तक उचित नहीं है, यदि व्यक्ति में का र्यक्षमता है, वह सक्षम है तो उसे उस अवधि तक कार्य करने देना चाहिए, जब तक वह कार्य करने के लायक बना रहे।
दिनदयाल मुरारका

हम चाहे तो व्यक्तियों को उसकी क्षमता के अनुसार, एक उम्र बीत जाने पर दूसरे प्रकार का कार्य दे सकते हैं, जो वह भली-भांति कर सके, किंतु अनिवार्य रूप से व्यक्ति की निवृत्ति नहीं करनी चाहिए, यह उस संस्था की सामाजिक जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह उसे अपनी संस्था में ६० वर्ष की उम्र के बाद किसी ऐसे कार्य में लगा ले, जो वह भलीभांति कर सकता है, यदि व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम हो जाता है तो उसकी निवृति करना उचित है ना कि इसके पहले। ऐसा पाया गया है कि ६० की उम्र के बाद में भी व्यक्ति अपने अनुभव, संचित ज्ञान के आधार पर ज्यादा अच्छे निर्णय ले सकता है, वह ज्यादा अच्छे ढंग से काम कर सकता है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमलोग शिक्षा के क्षेत्र में, पत्रकारिता के क्षेत्र में, विज्ञान के क्षेत्र में एवं प्रशासक एवं संगठक के क्षेत्र में देख सकते हैं, हमें अपनी मानव संपदा का अधिकतम उपयोग करना चाहिए, हमें अपनी व्यवस्था इस तरह से बनानी चाहिए कि जब तक व्यक्ति में क्षमता है, तब तक वह कार्य कर सकता है, क्योंकि हम वास्तविक जीवन में देखते हैं कि एक व्यापारी अपने जीवन में कभी रिटायर नहीं होता, वो जब तक काम कर सकता है अपने व्यवसाय को भलीभांति चलाता है, राजनीति क्षेत्र में हम देखते हैं कि ज्यादातर नेता गण ६० वर्ष की उम्र के बाद ही अच्छे पदों पर पहुॅच पाते हैं और आगामी २०-२५ वर्षों तक अच्छी सेवाएं देते हैं, हमारे दैनिक जीवन में हम देखते हैं कि ६० वर्ष की बाद के उम्र मे राज्यपाल, मुख्यमंत्री, प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति आदि जिम्मेदारियों का वहन बड़ी कुशलता से करते हैं, अतः व्यवहारिक रूप में हम देखते हैं कि ६० वर्ष के बाद आदमी की कार्य क्षमता में कुछ कमी जरूर आती है और नियमों के तहत हम उसे निवृत्त कर देते हैं जो ठीक नहीं है, राजनीति में तो हमारे मंत्रियों की पूरी टीम ही ६०-६५ वर्ष के बाद अपने पदों पर आसीन हो पाती है एवं उसके बाद लंबे समय तक देश को दिशा निर्देश करती रहती है। कुछ लोग यह बात कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति रिटायर नहीं होगा तो नए व्यक्तियों को कैसे मौका मिलेगा, यह बात कुछ हद तक सही है किंतु हमारी व्यवस्था में हर प्रकार के व्यक्ति को कार्य करने की जगह है, यदि व्यक्ति ६० वर्ष का हो गया तो उसे ऐसे किसी विभाग में कार्य दे देना चाहिए जो वह अपने पूर्
अनुभव के आधार पर भली-भांति कर सके और उसके पद पर किसी और नए आदमी की नियुक्ति की जा सकती है, कोई व्यक्ति यदि स्वेच्छा से निवृत होना चाहता है तो उसका स्वागत होना चाहिए, उस पर कोई बंधन नहीं होना चाहिए, लेकिन जो अनिवार्य नियुक्ति की जो धारणा हमारे समाज में बनी हुई है, उसे हमें दूर करना चाहिए, उसका हमें कोई हल निकालना चाहिए। मैंने देखा है कि निवृत्ति के बाद व्यक्ति की समस्याएं कम होने की बजाय बढ़ जाती है, वह समाज पर एक बोझ सा हो जाता है, परिवार वाले भी उसे उपेक्षा की नज़रों से देखते हैं, लोगों में यह सोच हो जाती है कि यह व्यक्ति अब कुछ काम का नहीं रहा, तब व्यक्ति अपने आप को उपेक्षित
महसूस करता है एवं धीरे-धीरे उसकी सोच नकारात्मक हो जाती है और वह अक्षमता की ओर तेजी से बढ़ना शुरू कर देता है, यही व्यक्ति के पतन का कारण बनता है और यही बातें उसकी बीमारी एवं फिर उसकी जल्द मृत्यु का कारण बन जाती है। ६० वर्ष की बाद के आयु में व्यक्ति अच्छा कार्य कर सकता है, इसके कई जीवंत उदाहरण है, नरेंद्र मोदी से अच्छा कोई उदाहरण नहीं हो सकता, तमाम इंडस्ट्री एवं बिजनेस इकाइयों के प्रमुख को आप देखेंगे तो निश्चय ही उन्हें ६० वर्ष की उम्र के बाद का ही पाएंगे और इस उम्र में भी वह बड़े प्रभावी ढंग से अपने व्यवसाय को आगे बढ़ा रहे हैं तो मालिक यदि ६० वर्ष के बाद काम कर सकता है तो उसके अंतर्गत काम करने वाले आदमी क्यों नहीं? अतः आवश्यकता है, हमें हमारी सोच बदलने की, ताकि उपलब्ध मानवीय संपदा का हम अधिकतम उपयोग कर सकें जो निश्चय ही राष्ट्र हित में होगा।
आंख पर पट्टी बांधकर वृद्धा अपनी बेटी, नतिनी के साथ कूद गई समाज के कानों में लेकिन जूं भी नहीं रेंगी
घटना १४ नवम्बर की है। १०/१/१, बड़जाता स्ट्रीट के एक मकान की चौथी मंजिल से एक ही परिवार के सदस्यों ने छलांग लगायी। खास बात यह है कि वृद्धा ने अपनी आखं पर पट्टी बांध कर बेटी और नातिनी के आत्महत्या की कोशिश की। वृद्धा की मौत हो गई, उसकी बेटी बुरी तरह जख्मी हुई पर उसकी बच्ची को लोगों ने बचा लिया। आत्महत्या के प्रयास का कारण आर्थिक तंगी, बेटी की ससुराल में प्रताड़ना बताया गया। अखबारों में यह घटना सुर्खियों में छपी। आत्महत्या की नौबत जिन कारणों से आयी, उस पर समाज के नामधारियों द्वारा सभी मंच पर लम्बे भाषण एवं प्रवचन दिये जाते रहे। तलाक की बढ़ती हुई संख्या पर समाज में कई बार चिन्ताएं प्रकट की गयी। आर्थिक विषमता एवं समाज के एक तबके में अभाव भी हमारे सामाजिक नेताओं के प्रिय विषय रहे हैं। वृद्धा खुदखुशी के लिये अपनी आंख पर पट्टी बांधकर। शायद ऐसे करते हुए उसे आत्मग्लानि या लज्जा बोध हो रहा होगा, या फिर वह चाहती थी कि ऐसा करते वक्त कोई उससे नजर नहीं मिला सके। यह अपने ढंग की पहली घटना है कि किसी ने आत्महत्या की कोशिश के पहले अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली हो। महाभारत में अंधे धृतराष्ट्र की पत्नी गान्धारी अपने पति के अंधेपन की सहानुभूति में आंख पर पट्टी बांध कर रखती थी ताकि अपने पति के प्रति संवेदनशील बन सके। वृद्धा सोहिनी देवी तापड़िया के लिये जीवन लीला समाप्त करना मजबूरी थी क्योंकि जवान बेटी घर पर आकर बैठी हुई थी, परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था-बेटी के तलाक लेने की भी पेशकश थी पर केन्द्र बिन्दु था गरीबी और बेटी का पारिवारिक कलह। आम लोगों को भले ही धारणा हो कि मारवाड़ी धनी हैं, माहेश्वरी समाज के लोग सम्पन्न हैं पर कड़वी सच्चाई इस घटना से उजागर होती है। दुर्भाग्य की बात यह है कि मारवाड़ी समाज के केन्द्रीय संगठन अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन, माहेश्वरी समाज के राष्ट्रीय संगठन माहेश्वरी महासभा एवं स्थानीय माहेश्वरी सभा जिसका भवन घटनास्थल के कुछ फलांग दूरी पर है, किसी पदाधिकारी ने इस घटना को गम्भीरता से नहीं लिया। माहेश्वरी सभा के अध्यक्ष श्री पुरूषोत्तम मिमानी तापड़िया परिवार की बैठक में गये थे पर इस वारदात के बाद इस मामले से कोई हलचल समाज में नहीं हुई। माहेश्वरी महासभा के पूर्व अध्यक्ष श्री जोधराज लढ्ढा और वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री श्याम सोनी इस घटना के चार दिन बाद कलकत्ता में थे पर तापड़िया (माहेश्वरी) परिवार का उसकी पुत्री इन्द्रा मोहता और उसकी तीन की अबोध बच्ची जिन परिस्थितियों से जूझ कर मरने की सोची उससे २०१८ के मारवाड़ी समाज या माहेश्वरी समाज का कोई परोकार नहीं है। वैसे भी गरीब आदमी के लिये समाज के बेदर्दी लोगों को सोचने की कहां फुर्सत है। १८ नवम्बर को कलकत्ता के एक क्लब में देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री आर सी लाहोटी साहब से मिलने के लिये माहेश्वरी समाज के कथित दस-पन्द्रह प्रबुद्ध लोगों का भोज आयोजित किया गया था। जहां देश एवं मोदी सरकार के कार्यकाल की त हल्की फुल्की चर्चा हुई पर समाज की ताजा स्थिति पर किसी ने मुंह नहीं खोला।
खैर इस पर कोई आश्चर्य इसलिए नहीं है क्योंकि हमारा समाज अब इतना संवेदनशील नहीं रहा कि समाज के निचले तबके कि हालात पर चर्चा करे-कोई मरे तो अपनी बला से। बहुत से लोग मरते हैं- रोज की घटना है। इसके लिए प्रलाप करने की क्या जरूरत है। मारवाड़ी सम्मेलन हो चाहे माहेश्वरी सभा या फिर कोई दूसरा जातीय संगठन-सबकी एक शिकायत है कि समाज के लोग इन संगठनों से जुड़ते क्यों नहीं। पर किसी समाज-पुरूष के जहन में यह बात नहीं आती कि ये सभी संगठन समाज के बड़े या प्रभावशाली लोगों के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं। सोहिनी देवी तापड़िया उसकी पुत्री इन्द्रा मोहता व मासूम पुत्री उनके चिन्तन मनन के एजेन्डे में नहीं आते। १४ नवम्बर की घटना वैसे कोई नयी नहीं है। परिवार एवं समाज से प्रताड़ित बहुत महिलायें घुट-घुट कर जी रही है। मां-बाप के घर से विदा हो गई-पति के घर में लांछित हुई फिर एक ही विकल्प रह जाता है-आत्महत्या। कुछ लोग समाज में बढ़ते हुये तलाक की घटनाओं पर गाहे-बगाहे चिन्तित हो जाते हैं पर उन्हें जमीनी हकीकत का पता नहीं है। कटु सत्य यह है कि अंतोतग्वा तलाक का एक ही विकल्प है कि विवाहिता आत्महत्या कर ले। तलाक ले या जीवन समाप्त कर ले, इसके बीच उसे एक विकल्प चुनना होता है। पुराने समय में लड़कियां सारे कष्ट एवं प्रताड़नायें झेलती थी पर पति परमेश्वर का घर नहीं छोड़ती। अब शिक्षित लड़कियां ऐसा नहीं कर सकती, विशेषकर एक ऐसे काल में जब पढ़ने-लिखने के बाद अब वह आर्थिक स्वावलंबन की ओर बढ़ रही है। नारी जाति का यह जागरण समाज के कुछ दकियानूसी लोगों की नजर में उच्छूखंलता भी है। तापड़िया-मोहता कांड आंख खोलने के लिये काफी है, यह दुर्भाग्यजनक घटना समाज के जातीय संगठनों की कलई भी खोल देती है। वैसे ‘‘देर आयद दुरूस्त आयद’’ समाज की युवा पीढ़ी आगे आये और जिन परिस्थितियों ने तापड़िया-मोहता को आत्महत्या करने पर मजबूर किया उस पर विचार मंथन करे एवं समाज को संवेदन शून्यता की शर्म से उबारे।