राजा गंधर्व सेन का सांडेराव (फालना)
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गौरवशाली भारत देश के राजस्थान प्रान्त में फालना स्टेशन से १२ किलोमीटर दूर जोधपुर संविभाग के पाली जिले में साण्डेराव नामक नगर। अजमेर जाने वाली सड़क के दाहिनी ओर श्री महादेव पहाड़ के नीचे पहाड़ के नीचे यह सुन्दर प्राचीन नगर बसा हुआ है, यहाँ पाली, सुमेरपुर, फालना, उदयपुर, तखतगढ़, जालोर आदि अनेक स्थानों से बसे आतीजाती रहती हैं। जयपुर, दिल्ली, अहमदाबाद आदि नगरों को जाने वाली मुख्य सड़क पर यह नगर स्थित है। यातायात की सुविधा के कारण इसका विशेष महत्व है, इस नगर का महत्त्व इसलिए भी है कि यह गोड़वाड़ की पंचतीर्थी के समीप है। जगत-प्रसिद्ध त्रैलोक्यदीपक श्री राणकपुर तीर्थ के लिए वहीं से जाते हैं, इसके समीप ही केवल पाँच मील की दूरी पर श्री लीम्बेश्वर महादेव तीर्थ है, इस नगर में अति प्राचीन श्री शान्तिनाथ जिनालय है जो अनुपम कलाकृति है, जिसकी भव्य रचना विस्मयकारी है।
प्राचीनकाल में पूर्वी भारत की राज्य-क्रान्ति के समय मगध आदि प्रदेशों से जैन लोग राजपूताने में आये और वे जहाँ अनुवूâल स्थान मिला, वहाँ बस गये, वे अपने साथ प्राचीन मूर्तियाँ भी लेते आये थे जिसे यहाँ सुन्दर जिनालयों का निर्माण करवाकर उनकी प्रतिष्ठायें भी करवाई, इसके अनेक प्रमाण विविध शिलालेखों, पट्टावलियों और रासो ग्रन्थों में मिलते हैं।
मन्दिर में भगवान की एक गादी पर वि.सं. १११० का लेख है, एक प्राचीन परकर पर सं. १११५ विक्रमी अंकित है, एक आचार्य- प्रतिमा पर वि.सं. ११६७ है, वि. सं. १२२१, १२३६ आदि के शिलालेख मन्दिरजी में विद्यमान हैं जो प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं, इस स्थान का प्राचीन नाम संडेरक था, इसके पहले इसका नाम वृषभनगर था, ऐसी मान्यता है। राज्यक्रान्ति के समय जैन ग्रन्थ प्रतिमाओं के साथ प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा भी लाये थे। श्री ऋषभदेव की प्रतिमा सुन्दर जिनालय निर्मित करवाकर भव्य महोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठित की गई थी, उस समय वृषभ-नगर की रचना की गई थी और नाम वृषभनगर हुआ, फिर राव सांडेजी सांडेराव की गद्दी पर बैठे, तब उन्होंने इसका नाम ‘सांडेराव’ रखा, प्राचीन समय में यह नगर अत्यन्त समृद्ध और वैभवशाली था, पूर्व देश की राज्यक्रान्ति और उथलपुथल में विपुल संख्या में जैन इस भूभाग में आये। अहिंसा, संस्कृति के कारणा लोकप्रिय हो गये, उस समय सेवंती नगरी (सेवाड़ी), क्षमानन्दी (खिवान्दी), चम्पानगरी, नन्दकुलवती आदि अनेक समृद्ध नगरियाँ इस क्षेत्र में विकसित हो गई थी, यहाँ के धनाढ्य श्रेष्ठिवर्य दूर-दूर तक व्यापार करते थे तथा सुन्दर चैत्योें के निर्माण के साथ-साथ विशाल ज्ञान-भण्डारों और ज्ञानमन्दिरों की स्थापना करते रहे थे।
‘संडेरक’ नगर की प्रसिद्धि का कारण है- यहाँ के महान् ज्ञानियों के चमत्कार और लोकहित में उनके द्वारा किये गये अनेक मंगल कार्य।
संडेरकगच्छ के महान् जैनाचार्यों में महाप्रभावक, श्री गौतमावतार यशोभद्र सूरीश्वर जी महाराज की यशोगाथा इतिहास के पन्नों में ही स्वर्णाक्षरों में अंकित है, अपितु उज्ज्वल, करुणाद्र गाथाएँ जनमानस में भी अंकित हैं, यहाँ के विद्वानों और श्रेष्ठिवर्यों, राजाओं और महारानियों ने भी धर्म और संस्कृति के विकास में जो योग दिया है, वह नितान्त प्रशंसनीय है।
साण्डेराव में साहित्य-रचना- साण्डेराव नगर प्राचीनकाल में विद्वानों द्वारा प्रतिष्ठित एवं सम्मानित रहा है, यहाँ पर आचार्यों, पण्डितों एवं साहित्यकारों ने सत्साहित्य की रचना करके जिनेश्वर वारणो के अहिंसा और पे्रम के सन्देश को दिग् दिगन्त तक पैâलाया, एक ओर यह पुण्यवती नगरी श्रीमन्तों की पियूषवाणी से पावन हुई, जिसकी यशपताका समस्त राष्ट्र में फहरी, ‘शान्ति-सौरभ’ मासिक पत्रिका वर्ष ४, अंक ९, दिनांक २५-७-७७ श्रावणा सुदी ६, सोमवार, पृ.६० पर सांडेराव की साहित्यरचना के विषय में निम्न लेख प्रकाशित हुआ है, जो ऐतिहासिक शोध के आधार पर लिखा गया है:
‘‘आचार्य श्री रत्नाकर सूरि (आ.रत्नसिंहजी) के उपदेश से शेठ जयन्त श्रीमाल के पुत्र लाडरण ने सं.१३४७ आषाढ़ वदि ६ गुरुवार को आशापल्ली में श्री विद्यासिंह की पत्नी बैजलदेवी के पुत्र मन्मथ सिंह द्वारा रचित ‘सूक्तरत्नाकर महाकाव्य धर्माधिकार’ की चार प्रतियाँ लिखाईं तथा संडेरक के भगवान महावीर के जिन प्रासाद के प्रबन्धक शेठ पोरवाड़ के पुत्र वरणधन के पुत्र पेथड़ ने सं.१३५३ में ‘श्री भगवती सूत्र’ टीका सहित लिखाया था, जिसको आचार्यश्री सोमतिलक सूरिजी तथा उनके शिष्य हर्षकीर्ति गरणी ने सं. १३५३ में बीजापुर में व्याख्यान में बाँचा
था।’’
सांडेराव का जैन समाज-सांडेराव का जैन समाज धर्मानुरागी, उदारमना एवं समन्वयकारी रहा है, धर्मानुष्ठानों एवं जिनेश्वर की भक्ति में इसकी सदा अभिरूचि रही है। प्राचीन काल में इस समाज ने अपने धर्म-सद्भाव का परिचय दिया था, इसके अनेक प्रमाण साहित्य तथा जनश्रुतियों के माध्यम से मिलते हैं। दुष्काल एवं विषम काल में पीड़ित प्राणियों की सेवा में सांडेराव समाज ने अपने धन का सदुपयोग किया तथा दान देकर परोपकार के अनेक कार्य सम्पन्न किए हैं।
सांडेराव में पोरवाड़ वंशीय आलु शेठ रहे, उनके आसड नामक पुत्र हुए, आसड के ख्यामोख तथा वर्धमान नामक पुत्र हुए, ख्यामोख के पुत्र चंडसिंह के छह पुत्र हुए-पेथड़, नरसिंह, रत्नसिंह, मल्ल, मुंजाल और विक्रम सिंह, उनमें पेथड़ ने सेंडर (सांडेराव) में उच्च मन्दिर बनवाया।
बीजपुर में चैत्य बनवाया तथा महावीर स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई, उन्होंने आबू पर लुणिगवसही का उद्धार किया। पेथड़ संघपति ने श्रेष्ठिवर्य भीम द्वारा आबू में निर्मित पित्तलमय बिम्ब को स्वर्ण से दृढ़ करवाया, उन्होंने राजा कर्णदेव के राज्यकाल में श्री महावीर भगवान की प्रतिमा शुभ लग्न पर प्रतिष्ठित करवाई, उन्होंने शुभ लग्न में शत्रुंजय एवं गिरनार के संघ निकाले तथा वि.सं. १३७७ में जब दुष्काल पड़ा, तब अनाज देकर लाखों मनुष्यों की प्राण-रक्षा की, उन्होंने आगम की प्रतियाँ लिखवाकर चार भण्डारों को अर्पित की, सम्प्रति सांडेराव में जैनों के १००० घर हैं, आज भी सांडेराव का जैन समाज परस्पर प्रेम से रहते हैं, यहाँ पर तपागच्छ, खरतरगच्छ, अचलगच्छ, त्रिस्तुतिक, चार थुई, मंदिरमार्गी एवं स्थानकवासी जैन समाज अत्यन्त प्रेम से रहते हैं। दलबंदी आदि क्लेश और धर्म सम्बंधी झगड़ों से यहाँ का समाज सदैव दूर रहा है, सब अपने-अपने मतानुसार हिलमिल कर अपनी-अपनी धर्म-क्रियाएँ पालते हुए साधना में लीन रहते हैं, जब कभी प्रतिष्ठा, साधु-साध्वी महाराज के चौमासे, अट्ठाई महोत्सव, स्वामिवात्सल्य, महापूजोत्सव आदि धार्मिक कार्यों का आयोजन होता है, तब सभी भाई-बहिन हिलमिल कर तन-मन-धन से अपना सहयोग देते हैं।
सांडेराव गच्छ की स्थापना १० वीं विक्रम शताब्दी के दौरान यहां की गई थी, ऐसा कहा जाता है कि विक्रम वर्ष ९६९ में, मंदिर की मरम्मत और जीर्णोद्धार के बाद औपचारिक स्थापना उत्सव के समय, आचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी ने अपनी योग शक्तियों के द्वारा पाली के एक व्यापारी से आवश्यक मात्रा में घी मंगवाया था जिसके बारे में व्यापारी को स्वयं पता नहीं था और बाद में जब सांडेराव के लोगों ने घी के मूल्य को पाली के व्यापारी को भेजा, तो व्यापारी ने उस राशि को स्वीकार नहीं किया, जो उससे संबंधित नहीं थी, अंत में पूरी राशि जो नौ लाख रुपये की थी, वह पाली में एक मंदिर बनाने में खर्च की गई थी जो मंदिर आज भी ‘नवलखा मंदिर’ के रूप में खड़ा है, इस मंदिर में पीठासीन देवता की मूर्ति चमत्कारों से भरी है, कई-कई बार श्री पाश्र्वनाथ भगवान श्री धर्मेन्द्र के संरक्षक देवता कोबरा के रूप में मंदिर में दिखाई देते हैं। मन्दिर के सामने एक उपाश्रय है, मणिभद्र यक्ष का आसन है जहाँ समय-समय पर कई चमत्कार भी होते रहते हैं। वैशाख शुक्ला ६ को हर वर्ष मंदिर में ध्वज पूजा समारोह होता है।
इस मंदिर की वास्तुकला अद्वितीय है। मंदिर जमीनी स्तर से ८ फीट नीचे है। मंदिर में ४ बड़े हाल है, बारिश के दौरान मंदिर में बड़ी मात्रा में पानी एकत्र हो जाता है। मंदिर चौक (मंदिर के भीतर एक निर्मित क्षेत्र) में एक छेद है जहाँ से यह सारा पानी बह जाता है, यह कैसे होता है और पानी आखिर कहां जाता है, आज तक कोई नहीं जान पाया है, मूर्ति अपने आप में बहुत सुखद और देखने में सुंदर है।
स्थान : सांडेराव के लिए फालना का नजदीकी रेलवे स्टेशन १३ किमी दूर है जहाँ से बसें और टैक्सी उपलब्ध हैं। सार्वजनिक बस – स्टैंड रावला
मंदिर से २०० मीटर की दूरी पर है, बस और गाड़ी द्वारा रावला और मंदिर तक पहूंचा जा सकता है।
सांडेराव रावला : सांडेराव रावला ने सांडेराव गांव में महल बनाया। रावला शहर के केंद्र में स्थित ६० से ७० कमरों का भवन है, जहां ठाकूर संयुक्त परिवार रहते थे, इसे महाराजा सज्जन सिंहजी ने बनवाया था। निर्माण १९०८ में शुरू हुआ था व पूर्ण १९१९ में हुआ। सांडेराव पैलेस में ६१ कमरे हैं।
सांडेराव का शाही परिवार : सांडेराव का शाही परिवार राणावत का था जो उदयपुर से आए थे, उन्होंने सोलहवीं शताब्दी में सांडेराव के चौहान को हराया और राणावतों के शासन की स्थापना की। महाराजा शार्दूल सिंहजी सांडेराव के पहले राणावत राजा थे।
सांडेराव के ठाकूर : बीसवीं शताब्दी में सांडेराव ने ठाकोर साहब सज्जन सिंहजी के शासन में अपनी अति प्रगति की। ठाकोर साहब सज्जन सिंहजी के तीन बेटे और एक बेटी थी। सांडेराव का अंतिम शासक ठाकुर साहब तखत सिंहजी (B.A., L.L.B.) थे। ठाकुर साहब तखत सिंहजी के चार बेटे और चार बेटियाँ थीं, अभी ठाकोर साहब तखत सिंहजी का परिवार सांडेराव पैलेस (रावला) में रहता है, उन दिनों राजा थैकर के रूप में सक्षम व्यक्तित्वों की नियुक्ति करते थे और उन्हें २३ गांवों का नियंत्रण प्रदान करते थे।
तालाब: सांडेरावनगर के विशाल सरोवर के पास अनेक छतरियां स्थित हैं, जो अत्यन्त प्राचीन हैं। एक छतरी पर एक लेख है जिस पर वि.सं. १७३७ अंकित है, इसमे बालिया राजा अर्जुनसिंह के देवलोक के समय उनकी रानी केसरबाई के सती होने का उल्लेख है। अन्य छतरियाँ बहुत प्राचीन हैं जिनके लेख घिस गये हैं। ये छतरियाँ राजाओं, यतियों और मुनियों की हैं।
सांडेरावनगर का प्राचीन गौरव निस्सन्देह स्वर्णाक्षरों में अंकित है, इन नगर के वैभव की गाथाएँ विभिन्न पट्टावलियों और रासो ग्रन्थों में वर्णित है, इस नगर के श्रेष्ठिवर्य न केवल लक्ष्मीवंत थे अपितु विद्यादेवी के उपासक भी थे, यहाँ के राजवंशी भी नीतिवान और प्रजावत्सल थे। विविध शिलालेखों, ऐतिहासिक पट्टावलियों और पत्रावलियों व जनश्रुतियों आदि से सुविदित है कि ये राजा तथा इनके अधीनस्थ राज्य-कर्मचारी जिनेश्वर भगवान और जैन धर्म-गुरूओं का आदर करते थे, वे जैन मन्दिरों के लिए धन-सम्पत्ति दान में देते थे, गोखलों, स्तम्भों आदि का निर्माण भी करवाते थे तथा मंगल महोत्सव भी रचते थे। जैन-जैनेत्तर समाज में अत्यन्त मेल-मिलाप था।
सांडेराव नगर के ज्ञान-भंडारों तथा अनेक प्राचीन प्रतिमाओं से यह प्रमाणित हो जाता है कि यह नगर अतीत काल में शान्ति और समृद्धि से सम्पन्न था जो आज भी है।
सांडेराव अस्पताल : सागरमलजी चिम्नातिलोक कंकू चोपड़ा द्वारा १९४० में सागरमल चिम्नातिलोक चोपड़ा नामक अस्पताल का निर्माण सांडेराव में किया था, जो कि भारत के पाली-जिला, राजस्थान का पहला अस्पताल था। तेजराज डेदावत के बड़े भाई गणेशमलजी की २१ वर्ष की आयु में चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में मृत्यु हो गई थी, जिस कारण उनके परिवार को सामाजिक कृत्यों के लिए प्रेरित किया था।
श्री यशोभद्रसूरिजी जैन सेवा मंडल, पूनम मंडल व महिला मंडल आदि संस्थाएं क्रियाशील है। यहॉ लगभग ४००० तक की जैनों की जनसंख्या है। गांव की कुल जनसंख्या लगभग १२००० है। दो बैंक, १५ से २० विद्यालय, अस्पताल, प्याऊ, कन्याशाला, दूरसंचार केन्द्र, होटल, डाकबंगला, विश्राम गृह इत्यादि यहां की अन्य उपलब्धियां हैं। राजकीय व्यवस्था के रूप में, ग्राम पंचायत सांडेराव छ: वार्डो में विभाजित है।
पुणे जिले के नगरवासियों को एकसूत्र में पिरोने हेतु दि. २६ अप्रैल १९९९ को श्री सांडेराव जैन संघ, पुणे की स्थापना हुई, उस समय अध्यक्ष श्री मदनजी सेठिया थे।
सांडेराव सेठ: चिमनातिलोक (कंकू चोपड़ा)
चिमनाज के २ संताने थी, सागरमलजी और बेटी, सागरमलजी के ५ बेटे श्री तेजराजजी, श्रीगणेशमलजी, श्री अनराजजी, श्री सरेमलजी, श्री चेनराजजी और तीन बेटीयां।
बड़े बेटे श्री तेजराजजी जो जैन विद्वान ही नहीं, अनेक धर्मों के ज्ञाता थे, उस समय उच्चा शिक्षा में एलएलबी वकालत की डीग्री हासिल कर गांव के प्रबुद्ध विद्वान बने। जैन धर्म के अलावा, योग, अंकज्योतिष, आयुर्वेद, कानून, ध्यान आदि के ज्ञाता थे। लोग कई मामलों में कानूनी एवं सामाजिक सलाह लेने उनके पास आते ओर उन्हें हर ढंग से यथोचित मदत करते।
दानेश्वरी भी थे। कई संस्थाओं में योगदान देते रहते थे। छोटे भ्राता श्री गणेशमलजी का रोग के कारण देहावसन होने से आप विचलित हुए क्योंकि उस समय सांडेराव में कोई इलाज का साधन नहीं था और आपने आम आदमी को भी चिकित्सा की सहायता मिले, इसलिए आपके मन में अस्पताल निर्माण की बात घर कर गई और पिताश्री सागरमलजी से बात करके उस ओर प्रयास शुरू किए और अस्पताल का निर्माण होते-होते, संयुक्त परिवार ने महाराज उमेदसिंहजी जोधपुर नरेश की उदघाट्न के लिए आमंत्रित करने को कहा, उसी दरम्यान श्री सागरमलजी परिवार ने सांडेराव बाजार में एक भव्य आलिशान भवन बनाने का कार्य भी किया, ताकि महाराजा उमेद सिंह अस्पताल उद्घाटन के समय भवन में ठहर सके, इन सब कार्यों में सांडेराव के तत्कालिन ठाकूर साहेब का भरपुर सहयोग रहा, वे तेजराजी के परममित्र भी थे।
राजस्थानी ओसवाल जैन समाज में हर व्यक्ति तेजराजजी सागरमलजी देदावत (चोपडा) जैसे व्यक्तित्व से परिचित था, जो धनशक्ति करिश्माई व्यक्तित्व सामाजिक रूप से सक्रिय उच्च धार्मिक विषय पर विद्वान के रूप में बहुमुखी थे, पाली जिले के पहले अस्पताल के उद्घाटन के अवसर पर नारायण उमेदसिंहजी आदि प्रसन्न हुए कि उनके राज में ऐसे सज्जन भी है जो आम जनता की भलाई के लिए भी कार्य करते हैं और सागरमलजी चिमनाजी कंकु चोपडा को ‘सेठ’ की उपाधि से विभूषित किया गया। जोधपुर नरेश और कंकु चोपडा परिवार का उल्लेख नरेश द्वारा अस्पताल भवन के शिलालेख में भी अंकित किया गया है।
अन्य उपलब्धियां: श्री शत्रुंजय महातीर्थ की पावन भूमि पर गोडवाड की सबसे प्राचीन धर्मशाला श्री सांडेराव जिनेन्द्र भवन व श्री सहदााफणा पाश्र्वनाथ प्रभु का जिन मंदिर है, यहॉ पर नवनिर्मित ए.सी. धर्मशाला का रविवार दि. २३ जून २०१३ को उद्घाटन हुआ था। गिरिराज आबू पर निर्मित श्री महावीर केंद्र, बदलापुर स्थित छात्रावास, सांडेराव माध्यमिक विद्यालय, कन्याशाला, श्री चोपडा चिकित्सालय इत्यादि नगरवासियों की उदारता व दानशूरता के जीवंत उदाहरण हैं।
सुविधाएं : ओसवाल बगीचे की दो मंजिल की इमारत, मंदिर के पास पुरानी धर्मशाला व नूतन निर्मित श्री भोमियाजी भवन में आधुनिक शैली की सुविधायुक्त धर्मशाला है। श्री नाकोडा भैरव आराधना एवं अतिथि भवन है, अनेक कमरे व विशाल हॉल की सुविधा है, उपाश्रय व धर्मशालाओं के साथ उत्तम जैन भोजनशाला की सुंदर व्यवस्था, नियमित आयंबिल की सुविधा आदि है।
मार्गदर्शन : सांडेराव नगर जिला पाली से ५४ कि.मी. फालना रेलवे स्टेशन से १२ कि.मी. जोधपुर हवाईअड्डा से १४० कि.मी., विधानसभा क्षेत्र सुमेरपुर मंडी से २१ कि.मी., जवाई बांध से ३० कि.मी., राणकपुर तीर्थ से ४५ कि.
मी., गोडवाड की राजधानी वरकाणा से ३० किमी. दूर महामार्ग पर स्थित है। आवागमन के सारे साधन उपलब्ध हैं।
अग्रबंधू सेवा समिति मुम्बई द्वारा ‘होली का हुड़दंग’ समारोह सम्पन
मुंबई: अग्रबंधू सेवा समिति, मुम्बई की महिला समिति द्वारा महिला सदस्यों का ‘होली का हुड़दंग’ महिलाध्यक्षा श्रीमती शोभा बृजमोहन अग्रवाल की अध्यक्षता में शनिवार, ३० मार्च २०१९ को दोपहर ३ बजे से शाम ७ बजे तक अजंता पार्टी हॉल, गोरेगाँव पश्चिम में आयोजित हुआ। आयोजन की व्यवस्था में मंत्री मधु राजेन्द्र अग्रवाल, उपाध्यक्षा श्रीमती सुधा लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, श्रीमती ज्योति उदेश अग्रवाल, कोषाध्यक्षा श्रीमती बबीता शरद गोयल, श्रीमती पार्वती बसंत केडिया, श्रीमती नीता नीरज गोयल, श्रीमती सीमा सुशील गुप्ता, श्रीमती नूतन मनोज अग्रवाल, श्रीमती सविता महेन्द्र अग्रवाल, नेहा नीरज जैन, नीता रमेश जैन, शशि सुनील अग्रवाल आदि महिलाओं का विशेष योगदान रहा।
संस्था के मानद मंत्री उदेश अग्रवाल एवं कोषाध्यक्ष गोपालदास गोयल ने ‘मेरा राजस्थान’ को बतलाया कि इस अवसर पर महिलाओं ने आपसी मिलन के साथ विभिन्न प्रकार के रंगारंग कार्यक्रमों की प्रस्तुत दी, साथ ही गीतसंगीत के माध्यम से सदस्याओं ने नृत्य गीतों को प्रस्तुत किया, सभी उपस्थित महिलाओं ने कार्यक्रम की सराहना की, मंत्री श्रीमती मधु अग्रवाल ने उपस्थित व आयोजन में भाग लेने वाली महिलाओं का आभार माना।