शिल्प विद्या के उद्धारक विश्वकर्माजी का संक्षिप्त परिचय

शिल्प विद्या के उद्धारक विश्वकर्माजी का संक्षिप्त परिचय

नारायण की आज्ञा से ब्रह्माजी ने इस पृथ्वी का निर्माण किया तो उन्हें इसे स्थिर रखने की भी चिन्ता हुई, जब उन्होंने इसके लिए नारायण से स्तुति की तो स्वयं नारायणजी ने विराट विश्वकर्मा का रूप धारण कर डगमगाती पृथ्वी को स्थिर किया, पृथ्वी के स्थिर हो जाने के पश्चात विश्वकर्मा ने विभिन्न लोकों की रचना की।
समस्त सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी ने विभिन्न युगों में प्रलय के पश्चात सृष्टि की पुर्नरचना की तथा हर युग में विश्वकर्मा ने अपना योगदान दिया। विश्वकर्मा कोई नाम नहीं यह तो पदवी ‘‘उपाधि’’ मात्र है, जिस ऋषि-महर्षि ने शिल्प वेद पढ़कर नये विज्ञान का आविष्कार किया, वह ऋषि-महर्षि आचार्य के द्वारा ‘विश्वकर्मा’ पद पर अभिशिष्ट हुए, जिस प्रकार आदिशंकराचार्य जी के पश्चात उनके मठ पर अभिशिष्ट हुए, प्रत्येक मठाधीश क्रमश: परम्परा से शंकराचार्य ही कहलाते हैं, चाहे उनका निजी नाम कुछ भी क्यों न हो, इस प्रकार से आरम्भ काल से आज पर्यन्त अनेक विश्वकर्मा हुए हैं, प्रस्तुत है विवरण: ह जिस परमात्मा ने समस्त ब्रह्माण्ड को रचा और शिल्पविद्या की मूलपुस्तक अथर्ववेद का प्रकाशन किया वे अनादि ‘विश्वकर्मा’ हैं।
ह जिस परमात्मा ने अंगिरा को शिल्पविद्या का अधिकारी समझ उनके हृदय में शिल्पविद्या की मूल पुस्तक अथर्ववेद का प्रकाशन किया, हमारे वंश में आदि विश्वकर्मा भगवान अंगिरा हुए और सृष्टि के आरम्भ में महर्षि अंगिरा की उत्पत्ति अग्नि नामक परमात्मा से हुई जो अग्नि शिल्प विद्या का मूल साधन है यथा ये ब्रह्मा मानस पुत्रों में से थे। अग्नि के पुत्र अंगिरा के आग्नेय संज्ञा वाले आठ पुत्र हुए बृहस्पति, उत्थ्य, आपत्यद्ध, पथस्य, शासन, धोर, विरूप, सवर्त और सुधन्वा। अंगिरा वंश में आदि शिल्पाचार्य विश्वकर्मा हुए, ‘विश्वकर्मा’ संस्कृत साहित्य में अनेक अर्थो में प्रयुक्त हुआ है, प्रथम अर्थ उस विराट शक्ति का बोधक है जिसने सृष्टि को रचा, द्वितीय अर्थ है अंगिरा वंश के भुवन का पुत्र विश्वकर्मा, जो शिल्प के प्रवर्तक हुए तथा तृतीय अर्थ है विश्वकर्मा उपाधि, जो विभिन्न कार्यों में दक्ष होने के कारण अनेक व्यक्तियों को प्रदान की गई इसके अतिरिक्त आत्मा, वाणी, प्राण, आदित्य, त्वष्टा तथा प्रजापति के अर्थ में भी विश्वकर्मा शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रथम तीन प्रकार के विश्वकर्माओं का वर्णन मिले-जुले रूप में करने से विश्वकर्मा का यथार्थ स्वरूप हृदयंगम नहीं हो सका, अत: हमें उसके यथार्थ स्वरूप को समझने का प्रयत्न करना है। ब्रह्म ऋषि अंगिरा के आप्त्य ऋषि हुए और आप्त्य के पुत्र भुवन तथा भुवन के पुत्र विश्वकर्मा हुए। आश्वलायन ‘‘सर्वालुक्रमणिका’’ व्याख्याकार षड्गुरूभाष्य के अष्टम् अध्याय में लिखा है कि भुवन नाम आप्त्य पुत्र का है और भुवन का पुत्र होने के कारण विश्वकर्मा का अंगिरस वंश व ऋषि गौत्रत्व है। ऋग्वेद दशम मण्डल के सूक्त, यजुर्वेद अध्याय १७ के मंत्र, एतरेय ब्राह्मण के भाष्यकार सायणाचार्य ने भी विश्वकर्मा का, भुवन पुत्र के रूप में अनेक जगह उल्लेख किया गया है। भुवन का यही पुत्र विश्वकर्मा सब शास्त्रों में देवताओं का शिल्पी कहलाया है, विश्वकर्मा और उसकी सन्तान के विद्वान लेखक ने विश्वकर्मा को भुवन का पुत्र माना है, इन सब प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि विश्वकर्मा भुवन के पुत्र, आप्त्य के पौत्र तथा अंगिरा के वंश में हुए। वेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में केवल भुवन पुत्र विश्वकर्मा के ही प्रमाण मिलते हैं अन्य किसी विश्वकर्मा के नहीं।
विश्व मेदिनी कोष के अनुसार सुधन्वा विश्वकर्मा थे उनके तीन पुत्र हुए, उनमें से ऋभू शिल्पी हुए, ब्रम्हाण्ड पुराण में अंगिरा के सात पुत्रों में से सुधन्वा के अलावा आप्त्य के एक भुवन नामक पुत्र हुआ जो भुवन ऋषि के नाम से विख्यात हुए। आश्वलायन सर्वानुक्रमणिका व्याख्याकूत श्री षड्गुरूभाष्य के आठवें अध्याय में लिखा है कि भुवन ऋषि के भौमन विश्वकर्मा हुए। विश्वकर्मा भगवान अंगिरा वंशीय होने के आधार पर शिल्पी अंगिरा वंशी हैं, सबमें मुख्य होने से ज्यादा प्रसिद्ध ये ही हैं। ऋषि अंगिरा, उपाध्य, भुवन व भौमन, ये सारे के सारे शिल्पी और मंत्र अष्टा ऋषि हुए हैं। भृगु पुत्र शुक्लाचार्यजी और ऋषि सायं की बेटी सोमया नाम की स्त्री से सूर्य तेज के समान त्वष्टा नामक पुत्र हुए, यही शिल्प विद्या के द्वारा विश्वकर्मा हुए, महाभारत में मय नामक विश्वकर्मा हुए, धर्म ऋषि के पोते अष्टम्वसु प्रभास को अंगिरा की पुत्री व देवताओं के गुरू बृहस्पति की बहिन विश्रुता/भुवना ब्याही गई, इनके पुत्र विश्वकर्मा हुए। भुवनपुत्र विश्वकर्मा ही आदि शिल्पाचार्य हैं, काल की दृष्टि से भी भुवन पुत्र विश्वकर्मा ही आदि शिल्पाचार्य हैं और वे ही सर्वप्रथम हुए हैं। मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ, श्री विश्वकर्मा के ये पंचपुत्र पंचविधाता के नाम से विख्यात हैं, इनके पांच शिल्प कर्म यज्ञकर्म है जो पवित्र एवं लोक हितकारी हैं।
शिल्प देवकर्म, ब्राह्मण कर्म हैं, इन शुभ शिल्पकर्मों के करने वाले सभी शिल्पकार पूज्य एवं वंदनीय हैं। भगवान विश्वकर्मा सही अर्थ में देवता और शिल्प विज्ञान के आदि प्रवर्तक हैं जिन्होंने श्रम और नियम का प्रवर्तन कर जगत का मनोहर रूप बनाया है, ये ही सर्वप्रथम श्रमिक, नियामक हैं जिन्होंने श्रम और कठोर साधना से पंचतत्वों की रचना कर सम्यक सृष्टि का निर्माण नियमन किया है।
एतदर्थ वेदों से लेकर महाकवि तुलसी कृत रामायण पर्यंत सभी मान्य ग्रन्थों में इनका उल्लेख मिलता है, बड़े आदर के साथ ऋषि मुनि और महात्माओं ने जगनियंता, विराट, विष्णु, शिव, त्वष्टा, नारायण, विश्वरूप, कश्यप, वाचस्पति, हिरण्यगर्भ, परमब्रह्म, जगदगुरू, शिल्पाचार्य, देवाचार्य, विश्वकर्मा विशारद, विश्वायु और सर्वज्ञ आदि सम्मान सूचक शब्द कहकर इनकी स्तुति गायी है।
विश्वकर्माजी की हम सभी आराध्य देव के रूप में पूजा करते हैं, उनका परिचय: विश्वकर्मा शब्द अनेकार्थी है, आत्मा, परमात्मा, सूर्य अथर्ववेद, ऋषि आदि अनेक अर्थो में विश्वकर्मा शब्द प्रयोग किया जाता है, यहां हम निर्माण के देवता विश्वकर्मा विषय पर लिख रहे हैं। देव श्रेणी के महापुरूषों प्राचीन कालीन ऋषि मुनियों आदि की वंशावली पुराणों में मिलती है, निर्माण का देवता आदिकालीन ऋषियों महर्षियों की श्रेणी में आता है।
धर्म ऋषि के पोते अष्टम वसु प्रभासजी को अंगिरा की पुत्री विश्रुता, जो ब्रह्मा वादिनी थी ब्याही गई, जो भुवना नाम से भी प्रसिद्ध है। प्रभास वसू के पुत्र विश्वकर्मा नाम से विख्यात हुए। माघ मास में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के पुण्य दिन पुनर्वसु नक्षत्र के अठाइसवें अंश में विश्वकर्माजी ने जन्म लिया। भविष्य पुराण, स्कन्द पुराण के अतिरिक्त वशिष्ठ ने भी विश्वकर्मा की जन्मतिथि का स्पष्ट उल्लेख किया है।

इसका आधार मदनरत्न वृद्ध वशिष्ठ पुराण का यह श्लोक है:- 
माघे शुक्ल त्रयोदश्यां दिवा पुण्ये पुनर्वसौ
अष्टाविशांति में जातो विश्वकर्मा भवानि च

अर्थात्: शिवजी बोले की पार्वती! माघ मास के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र के अठाइसवें अंश में विश्वकर्मा के रूप में जन्म धारण करता है, इस प्रमाण में न केवल तिथि का उल्लेख मिलता है अपितु नक्षत्र और उसके अंश की भी जानकारी है, भारत भर में सर्वाधिक स्थानों पर इसी दिन विश्वकर्मा का जन्म दिवस मनाया जाता है।
विश्वकर्माजी निर्माण के देवता माने जाते हैं: अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि विश्वकर्मा जी ने लोक कल्याण के पावन उद्ेश्य से प्रेरित होकर अपने शिल्प नैपुण्य से अनेक वस्तुओं की रचना की, अपने उस शिल्पविज्ञान एवं शिल्प नैपुण्य को आगे आने वाली सन्तति के निमित्त चिरस्थायी करने के लिये तथा आगे भी उसका प्रयोग कर मनुष्य को ऐश्वर्यशाली बनाने के लिये उस ज्ञान को विश्वकर्मा ने व्यवस्थित रूप प्रदान करते हुए अनेक शिल्प शास्त्रों की रचना की। शिल्पशास्त्रों की दृष्टि से इन्जीनियरिंग विद्या पर सर्वप्रथम अधिकारिक रचना है, इसे अथर्ववेद के उपवेद की संज्ञा प्राप्त है, यह विश्वकर्मा निर्मित है इसका उल्लेख पूर्व में हो चुका है, वस्तुत: यह सम्पूर्ण शिल्पशास्त्र का समुच्चय है, महर्षि दयानन्द ने भी सब शिल्पशास्त्रों में इसी को सर्वाधिक प्रमाणिक माना है, इस शिक्षा की अन्तिम परिपक्व अवस्था में अन्य सब ग्रन्थों से अधिक समय रखते हुये ६ वर्ष का रखा है तथा इन ६ वर्षों में पढ़कर विमान तथा भूगर्भादि विद्याओं को साक्षात् करना बताया है।
विश्वकर्मा ने समस्त शिल्पविज्ञान को चतुर्विध विभाजन कर फिर उनका अवान्तर भेद कर, दस शास्त्रों में निरूपण किया है, उत्पादन की दुष्टि से ‘कृषि, जल तथा खनिज’ तीन विभाग हैं। आवास की दृष्टि से वास्तु, प्रकार तथा नगर रचना-ये तीन विभाग हैं।

आवागमन के साधनों की दृष्टि से रथ, नौका तथा विमान, ये तीन विभाग हैं, अन्य सभी प्रकार के यंत्रों का चौथा
यंत्र विभाग है, इस प्रकार समस्त शिल्प विज्ञान का निम्नलिखित दस शास्त्रों के अन्तर्गत प्रतिपादन किया गया
है:
१.कृषि शास्त्र,
२.जल शास्त्र,
३.रथ शास्त्र,
४.नौका शास्त्र,
५.विमान शास्त्र,
६.वास्तु शास्त्र,
७.प्रकार शास्त्र,
८.नगर रचना शास्त्र,
९.यन्त्र शास्त्र।

इन सभी विषयों पर विश्वकर्मा ने १२ सहस्त्र ग्रन्थ लिखकर शिल्पविज्ञान अथर्ववेद को सम्पूर्ण किया, जो कलयुग में घटकर उन सबका समावेश चार सहस्त्र ग्रन्थों में हो गया। विश्वकर्मा रचित इन शिल्पशास्त्र के ग्रन्थों में केवल पांच-सात ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं।
शोषणरहित अर्थव्यवस्था के प्रवर्तक तथा अर्थव्यवस्था की तीन पद्धतियों की दृष्टि से भी विश्वकर्मा को भारतीय समाज व्यवस्था में एक अनुपम स्थान प्राप्त है। विश्वकर्मा के इस वैशिष्टय की और अभी विद्वानों का कम ध्यान गया है, परन्तु विश्वकर्मा पद्धति पूर्ण एवं आदर्श है। भगवान श्री विश्वकर्मा ने देवताओं के सभी अस्त्र-शस्त्र, आभूषण, अलंकार, सभी विमान तथा श्रेष्ठ प्रासादों का निर्माण किया। अद्वितीय पुष्पक विमान के कर्ता अदभूत शिल्पी प्रजापति श्री विश्वकर्मा हैं। महाप्रभु-जगतपिता ब्रह्माजी की प्रेरणा से ही श्री विश्वकर्मा ने पुष्पक विमान का निर्माण किया, जिसकी रचना को सौन्दर्य, कला, शक्ति आदि की दृष्टि से नापा नहीं जा सकता। पारिजात आदि दिव्य पुष्पों के चूर्णो से अनेक प्रकार की कलाकृतियों तथा भव्य दृश्यों से सुशोभित होने के कारण ही यह पुष्पक विमान कहलाता है।
विश्व के कर्म देवता और इसी देवता की एक संतान सुथार-समाज एक योग्य देवता की योग्य संतान, असंभव को संभव बनाने वाली एवं नित्य नई वस्तु से दुनिया को परिचय कराने वाली सुथार जाति, आज के इस प्रगतिशील युग में सभी की एक ही राय है कि सुथार समाज के किसी भी व्यक्ति को यह विश्वकर्मा जाr की देन है, वह किसी भी कार्य को इतने अच्छे तरीके से कर सकता है, जितना अन्य व्यक्ति नहीं। साथ ही यह कहावत भी प्रचलित है कि सुथार का बेटा कभी भूखा नहीं मरता अर्थात् इसी समाज के प्रत्येक सदस्य में कोई एक विशेष योग्यता अवश्य होती है। आज किसी भी क्षेत्र में देखा जाये तो इस जाति का कोई न कोई सदस्य वहां मौजूद है, यही नहीं बल्कि इस क्षेत्र में अपनी योग्यता के कारण चर्चित भी है, यह अतिश्योक्ति नहीं बल्कि एक निर्विवाद सत्य है, इतनी विशेषताओं से परिपूर्ण होने के बावजूद क्यों यह समाज अपने उच्च सामाजिक मूल्यों एवं परम्पराओं को तिलांजलि दे रहा है, जहां एक और युवा वर्ग अपने खान-पान, रहन-सहन एवम् आचार में निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर है, वहीं दूसरी और प्रौढ़ एवं वृद्ध सज्जन वर्ग में एक गहरी खाई उत्पन्न हो रही है। हमें भी कुछ बनना है, शोषित एवं मजदूर नहीं, बल्कि पोषक एवं निर्देशक बनना है, हमारे प्रदुषित मन को साफ कर जाति में समाज कंटकों के कारण उत्पन्न ईर्ष्या-भावना एवं गुटबन्दी को मिटाना है, आज शिक्षित वर्ग का यह नैतिक कर्त्तव्य बन गया है कि समाज में इस तरह की चेतना पैदा करें, जिससे सुधार की लहर आ जाये।
‘मेरा राजस्थान’ परिवार का सभी सुथार समाज बंधुओं से नम्र निवेदन है कि आपसी रंजिश एवं मनमुटाव को भुला कर, मिलजुल कर समाज व देश के हित में कार्य करें, सुथार समाज का गौरवमय स्थान बरकरार रहे, यही श्री विश्वकर्मा प्रभु की सच्ची सेवा-पूजा होगी।
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