होलिका दहन

बैकुण्ठ लोक के द्वार खोलता है
होलिका दहन
वैदिक काल से ही ‘होलिकोत्सव’ को नवत्रिष्टि यज्ञ कहते आए हैं, कालान्तर में प्रहलाद को मारने का प्रयास जब उसके पिता राक्षस सम्राट हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका के द्वारा किया तो ‘होलिका’ तो भस्म हो गयी, परन्तु प्रहलाद बच गये, तभी से प्रहलाद के बचने की स्मृति और होलिका (बुराई) के दहन की याद में इसे पर्व के रुप में मनाया जाता है।
मनाने की विधि:- ‘होली’ पर्व पूर्णिमा के दिन पड़ता है, अत: नर-नारी सत्यनारायण का व्रत रख कर सूर्यास्त से पूर्व पूजा करके ‘होलिका’ दहन की तैयारी आरम्भ करनी चाहिए, व्रत नहीं रख सकें तो अपने आंगन के पवित्र कोने में एक बांस को प्रहलाद का रुप मानते हुए रखें, उसके आस-पास गोबर के बटिये और लकड़ी व घास फूस लगायें और कच्चे सूत से लपेट दें। रोली, चावल, धनिया, हल्दी की गाँठ और गुड़ चढ़ाने हैं, परिवार का मुखिया शुभ मुहूर्त में निम्नलिखित मंत्र उच्चारण से उसकी पूजा करता है साथ ही
‘अहकूटा भयत्रस्तै: कृत: त्वं होलि बालिशै:’
‘अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम।।’
परिक्रमा करके हाथ जोड़ कर प्रहलाद रूपी बांस को निकालकर अग्नि लगाता है। स्त्रियां अपने-अपने क्षेत्र परम्परा के अनुसार गीत गाती हैं। बर्तन में पानी, तिल का लड्डू, हल्दी की गाँठ, मोठ के दाने, सब ‘होली अग्नि’ को दिखाती हैं। मोठ भूमि पर गिराकर पानी से अर्ध्य देवें और गीत गाते-गाते परिक्रमा कर पूजन समाप्त करें। पुरुष और बच्चे गेंहू, जौ, चने की बालियां होली की लपटों में जलाकर दाने निकाल कर सब में बाटें और प्रसाद के रुप में बिना चबाये निगल सकते हैं। आम्रमंजरी तथा चंदन को मिलाकर भी खाते हैं ऐसी मान्यता है, यह प्रसाद ग्रहणकर्ता को बैकुण्ठ लोक ले जाता है।
नई उमंग और नए उत्साह का संचार करती है होली
होली अनेकता में एकता का प्रतीक एक राष्ट्रीय एवं सामाजिक पर्व है। विविध रंगों से ओत-प्रोत यह त्यौहार फाल्गुन-पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। राजस्थान में ‘होली’ एक अलग शैली और अलग अंदाज में मनाई जाती है। होली के कई दिन पहले से ही ढप-धमाल, गिंदड़ आदि लोक नृत्यों के रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। रात-रात भर चलनेवाले इन कार्यक्रमों के जरिए नई उमंग और नए उत्साह का संचार होता है।
होलिका दहन का मुहूर्त: ‘होलिका दहन’ विशेष मुहूर्त में ही किया जाता है। प्रतिपदा, चतुर्दशी, भद्रा तथा दिन में ‘होलिका दहन’ का विधान नहीं है।
पूजा विधि एवं सामग्री : सर्वप्रथम थोड़े से गोबर और जल से भूमि पर चौका लगायें, फिर होली का डंडा रोपें और चारों ओर बड़कुल्लों की माला लगायें। मालाओं के आस-पास गोबर की ढाल, तलवार, खिलौना आदि रखें। जल, मौली, रोली, चावल, पुष्प, गुलाल आदि से होली का पूजन करें। पूजन के बाद ढाल व तलवार अपने घर में रख लें। बड़कुल्लों की चार माला अपने घर में पितरजी, हनुमानजी, शितला माता और घर के नाम पर उठाकर अलग रख दें।
होलिका पर्व : इस दिन सब स्त्रियां कच्चे सूत की कूकड़ी, जल का लोटा, नारियल, कच्चे चने युक्त डालियां, पापड़ द्वारा होली की पूजा करें। पूजन के बाद ‘होलिका’ को जलाया जाता है, इस त्यौहार पर व्रत भी करना चाहिए। ‘होली’ के दिन प्रात: स्नान आदि कर पहले हनुमानजी, भैरोजी आदि देवताओं की पूजा करते हैं, उन पर जल, रोली, मोली, चावल, पुष्प, गुलाल, चंदन, नारियल, नैवेद्य आदि चढ़ायें। दीपक से आरती कर प्रणाम करें, फिर आप जिन इष्ट देवों को मानते हैं उनकी भी पूजा करें। ‘होली’ में कच्चे चने युक्त हरी डालियां, कच्चे गेहूं की टहनियां (बालें) आदि भूनकर वापस घर ले आएं, ‘होली’ जलने पर पुरुष होली के डंडे को बाहर निकाल लें, क्योंकि इस डंडे को भक्त प्रह्लाद का रूप माना जाता है।

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