होली आई रे…
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फागुन आते ही चहुं ओर होली के रंग दिखाई देने लगते हैं, जगह-जगह होली मिलन समारोहों का आयोजन होने लगता है, होली हर्षाेल्लास, उमंग और रंगों का पर्व है, यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है, इससे एक दिन पूर्व होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहा जाता है। दूसरे दिन रंग खेला जाता है, जिसे धुलेंडी, धुरखेल तथ धूलिवंदन कहा जाता है। लोग एक-दूसरे को रंग, अबीरगुलाल लगाते हैं। रंग में भरे लोगों की टोलियां नाचती-गाती गांव-शहर में घूमती रहती हैं। ढोल बजाते और होली के गीत गाते लोग मार्ग में आते-जाते लोगों को रंग लगाते हुए होली को हर्षाेल्लास से खेलते हैं, विदेशी लोग भी होली खेलते हैं, सांध्य काल में लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिष्ठान बांटते हैं।
पुरातन धार्मिक पुस्तकों में होली का वर्णन अनेक मिलता है। नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली का उल्लेख किया गया है। होली के पर्व को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित है, सबसे प्रसिद्ध कथा विष्णु भक्त प्रह्लाद की है। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था, वह स्वयं को भगवान मानने लगा था, उसने अपने राज्य में भगवान का नाम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था, जो कोई भगवान का नाम लेता, उसे दंडित किया जाता था। हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था। प्रह्लाद की प्रभु भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकश्यप ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने भक्ति के मार्ग का त्याग नहीं किया। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकश्यप ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठे। अग्नि कुंड में बैठने पर होलिका तो जल गई, परंतु प्रह्लाद बच गया। भक्त प्रह्लाद की स्मृति में इस दिन होली जलाई जाती है, इसके अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी संबंधित है। कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था, इससे प्रसन्न होकर गोपियों और ग्वालों ने रंग खेला था।
देश में होली का पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है।
ब्रज की होली मुख्य आकर्षण का केंद्र है। बरसाने की लठमार होली भी प्रसिद्ध है, इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। मथुरा का प्रसिद्ध ४० दिवसीय होली उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है, श्री राधा रानी को गुलाल अर्पित कर होली उत्सव शुरू करने की अनुमति मांगी जाती है, इसी के साथ ही पूरे ब्रज पर फाग का रंग छाने लगता है।
वृंदावन के शाहजी मंदिर में प्रसिद्ध वसंती कमरे में श्रीजी के दर्शन किए जाते हैं, यह कमरा वर्ष में केवल दो दिन के लिए खुलता है। मथुरा के अलावा बरसाना, नंदगांव, वृंदावन आदि सभी मंदिरों में भगवान और भक्त पीले रंग में रंग जाते हैं।
ब्रह्मर्षि दुर्वासा की पूजा की जाती है। हिमाचल प्रदेश के कुलू में भी वसंत पंचमी से ही लोग होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं। कुलू के रघुनाथपुर मंदिर में सबसे पहले वसंत पंचमी के दिन भगवान रघुनाथ पर गुलाल चढ़ाया जाता है, फिर भक्तों की होली शुरू हो जाती है। लोगों का मानना है कि रामायण काल में हनुमान ने इसी स्थान पर भरत से भेंट की थी।
कुमाऊं में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं। बिहार का फगुआ प्रसिद्ध है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी पलू में ईंटें बांधकर देवरों को मारती हैं। पश्चिम बंगाल में दोल जात्रा निकाली जाती है, यह पर्व चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है। शोभायात्रा निकाली जाती है। महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेला जाता है।
गोवा के शिमगो में शोभा यात्रा निकलती है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्ख शक्ति प्रदर्शन करते हैं। तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंत का उत्सव है। मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोपड़ी का नाम है, जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासी भी धूमधाम से होली मनाते हैं। छत्तीसगढ़ में लोक गीतों के साथ होली मनाई जाती है। मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी भगोरिया मनाते हैं। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी होली मनाई जाती है।
होली सदैव ही साहित्यकारों का प्रिय पर्व रहा है, प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख मिलता है, श्रीमद्भागवत महापुराण में रास का वर्णन है, अन्य रचनाओं में ‘रंग’ नामक उत्सव का वर्णन है, इनमें हर्ष की प्रियदर्शिका एवं रत्नावली और कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् सम्मिलित हैं। भारवि एवं माघ सहित अन्य कई संस्कृत कवियों ने अपनी रचनाओं में वसंत एवं रंगों का वर्णन किया है, चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का उल्लेख है, भक्तिकाल तथा रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली विशिष्ट उल्लेख मिलता है, आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि कवियों ने होली को विशेष महत्व दिया है, प्रसिद्ध कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर अनेक पद रचे हैं, भारतीय सिनेमा ने भी होली को मनोहारी रूप में पेश किया है, अनेक फिल्मों में होली के कर्णप्रिय गीत हैं।
होली आपसी ईष्र्या-द्वेष भावना को बुलाकर संबंधों को मधुर बनाने का पर्व है, परंतु देखने में आता है कि इस दिन बहुत से लोग शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, लड़ाई-झगड़े करते हैं, रंगों की जगह एकदूसरे में कीचड़ डालते हैं, काले-नीले पक्के रंग एक-दूसरे पर फेंकते हैं, ये रंग कई दिन तक नहीं उतरते, रसायन युक्त इन रंगों के कारण अकसर लोगों को त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं, इससे आपसी कटुता बढ़ती है, होली प्रेम का पर्व है, इसे इस प्रेमभाव के साथ ही मनाना चाहिए, पर्व का अर्थ रंग लगाना या हुड़दंग करना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ आपसी द्वेषभाव को भुलाकर भाईचारे को बढ़ावा देना है, होली खुशियों का पर्व है।
होलिका दहन से पूर्व कैसे करें पूजन
होली : पर्व का महत्व और पौराणिक कथा
जानिए कैसे मनाएं होलाष्टक?
होलिका पूजन करने हेतु होलिका दहन वाले स्थान को गंगा जल से शुद्ध किया जाता है। फिर मोहल्ले के चौराहे पर होलिका पूजन के लिए डंडा स्थापित किया जाता है। उसमें उपले, लकड़ी एवं घास डालकर ढेर लगाया जाता है।
होलिका दहन के लिए पेड़ों से टूट कर गिरी हुई लक़डियाँ उपयोग में ली जाती है तथा हर दिन इस ढेर में कुछ-कुछ लक़डियाँ डाली जाती हैं, होलाष्टक के दिन होलिका दहन के लिए २ डंडे स्थापित किए जाते हैं, जिनमें एक को होलिका तथा दूसरे को प्रह्लाद माना जाता है।
पौराणिक शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए डंडा स्थापित हो जाता है, उस क्षेत्र में होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता, इन दिनों शुभ कार्य करने पर अपशकुन होता है, इस वर्ष होलाष्टक ५ मार्च से शुरू होकर १२ मार्च तक रहेगा, इस आठ दिनों के दौरान सभी शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं, इसके अंतर्गत २० मार्च को होलिका दहन और २१ मार्च को धुलेंडी खेली जाएगी।
प्रचलित मान्यता के अनुसार शिवजी ने अपनी तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर कामदेव को फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भस्म कर दिया था।
कामदेव प्रेम के देवता माने जाते हैं, इनके भस्म होने के कारण संसार में शोक की लहर फैल गई थी।
जब कामदेव की पत्नी रति द्वारा भगवान शिव से क्षमायाचना की गई, तब शिवजी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया था, इसके बाद लोगों ने खुशी मनाई। होलाष्टक का अंत धुलेंडी के साथ होने के पीछे एक कारण यह भी माना जाता है।
होली पर आजमाएं हर संकट से बचने के ८ अचूक उपाय
दुराचार पर सदाचार की विजय आपसी प्रेम एवं एकता का प्रतीक है होली
भारत संस्कृति में त्योहारों एवं उत्सवों का आदि काल से ही काफी महत्व रहा है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहाँ पर मनाये जाने वाले सभी त्यौहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम, एकता एवं सद्भावना को बढ़ाते हैं। भारत में त्योहारों एवं उत्सवों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है, यहाँ मनाये जाने वाले सभी त्यौहारों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना होता है, यही कारण है कि भारत में मनाये जाने वाले त्योहारों एवं उत्सवों में सभी धर्मों के लोग आदर के साथ मिलजुल कर मनाते हैं। होली भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार है, जिसकी लोग बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं।
भारतीय संस्कृति का परिचायक है ‘होली’ होली को लेकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न मान्यतायें हैं और शायद यही विविधता में एकता, भारतीय संस्कृति का परिचायक भी है। उत्तर पूर्व भारत में होलिका दहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस के रुप में जोड़कर, पूतना दहने के रूप में मनाया जाता है तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल भस्म कर दिया था और उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था, तत्पश्चात् कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर देवताओं ने रंगों की वर्षा की, इसी कारण होली की पूर्व संध्या पर दक्षिण भारत में अग्नि प्रज्ज्वलित कर उसमें गन्ना, आम की बौर और चन्दन डाला जाता है, यहाँ गन्ना कामदेव के धनुष, आम की बौर कामदेव के बाण, प्रज्ज्वलित अग्नि शिव द्वारा कामदेव का दहन एवं चन्दन की आहुति कामदेव को आग से हुई जलन हेतु शांत करने का प्रतीक है।
‘होलिका’ का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है होली भारत के सबसे पुराने पर्वों में से एक है, होली की हर कथा में एक समानता है कि उसमें ‘असत्य पर सत्य की विजय’ और ‘दुराचार पर सदाचार की विजय’ का उत्सव मनाने की बात कही गई है। इस प्रकार होली मुख्यतः आनंदोल्लास तथा भाई-चारे का त्यौहार है, यह लोक पर्व होने के साथ ही अच्छाई की बुराई पर जीत, सदाचार की दुराचार पर जीत व समाज में व्याप्त समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है, ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता व दुश्मनी को भूला कर एक-दूसरे के गले मिलते हैं और फिर ये दोस्त बन जाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व बसंत का संदेशवाहक भी है, किसी कवि ने होली के सम्बन्ध में कहा है
‘नफ़रतों के जल जाएं सब अंबार होली में,
गिर जाये मतभेद की हर दीवार होली में।
बिछुड़ गये जो बरसों से प्राण से अधिक प्यारे,
गले मिलने आ जाएं वे इस बार होली में।
प्रभु के प्रति अटूट भक्ति एवं निष्ठा’ के प्रसंग की याद दिलाता है यह महान पर्व
होली पर्व को मनाये जाने के कारण के रूप में मान्यता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकश्यपु नाम का एक अत्यन्त बलशाली एवं घमण्डी राक्षस अपने को ही ईश्वर मानने लगा था। हिरण्यकश्यप ने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकश्यपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर का परम भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से कुद्ध होकर हिरण्यकश्यप ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु भक्त प्रह्लाद ने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकश्यप के आदेश पर होलिका प्रह्लाद को मारने के उद्देश्य से उसे अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई, आग में बैठने पर होलिका तो जल गई परंतु ईश्वर भक्त प्रह्लाद बच गये, इस प्रकार होलिका के विनाश तथा भक्त प्रह्लाद की प्रभु के प्रति अटूट भक्ति एवं निष्ठा के प्रसंग की याद दिलाता है यह महान पर्व। होली का पर्व हमारे अन्त:करण में प्रभु प्रेम तथा प्रभु भक्ति के अटूट विश्वास को निरन्तर बढ़ाने का त्योहार है।
सभी धर्मों के लोग मिलकर मनाते हैं ‘होलिकोत्सव’
होली जैसे पवित्र त्यौहार के सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है।
भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं अपितु मुसलमान लोग भी मनाते हैं, इसका सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें मुगलकाल की हैं और इस काल में होली के किस्से जिज्ञासा जागृत करने वाले हैं, इन तस्वीरों में अकबर को जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर को नूरजहाँ के साथ होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज ही बदल गया था, इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के जमाने में होली को ‘ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी’ (रंगों की बौछार) कहा जाता था, अंतिम मुगल बादशाह शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाते थे।
होली का आधुनिक रूप
होली रंगों का त्योहार है, हँसी-ख़ुशी का त्यौहार है लेकिन आज होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भंग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक-संगीत की जगह फिल्मी गानों का प्रचलन, इसके कुछ आधुनिक रूप है, पहले जमाने में लोग टेसू और प्राकृतिक रंगों से होली खेलते थे। वर्तमान में अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ में लोगों ने बाज़ार को रासायनिक रंगों से भर दिया है।
वास्तव में रासायनिक रंग हमारी त्वचा के लिए काफी नुकसानदायक होते हैं, इन रासायनिक रंगों में मिले हुए सफेदा, वार्निश, पेंट, ग्रीस, तारकोल आदि की वजह से खुजली और एलर्जी होने की आशंका बढ़ जाती है इसलिए होली खेलने से पूर्व हमें बहुत सावधानियाँ बरतनी चाहिए, हमें चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाये रखते हुए प्राकृतिक रंगों की ओर लौटना चाहिए।
होली पर्व का मुख्य उद्देश्य मानव कल्याण होली पर्व के पीछे तमाम धार्मिक मान्यताएं, मिथक परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं छुपी हुई हैं पर इस पर्व का उद्देश्य मानवकल्याण ही है। लोकसंगीत, नृत्य, नाट्य, लोककथाओं, किस्से-कहानियों और यहाँ तक कि मुहावरों में भी होली के पीछे छिपे संस्कारों, मान्यताओं व दिलचस्प पहलुओं की झलक मिलती है। होली को आपसी प्रेम एवं एकता का प्रतीक माना जाता है। होली हमें सभी मतभेदों को भुलाकर एक-दूसरे को गले लगाने की प्रेरणा प्रदान करती है, इसके साथ ही रंग का त्यौहार होने के कारण भी होली हमें प्रसन्न रहने की प्रेरणा देती है इसलिए इस पवित्र पर्व के अवसर पर हमें ईष्र्या, द्वेष, कलह आदि बुराइयों को दूर भगाना चाहिए। वास्तव में हमारे द्वारा होली का त्यौहार मनाना तभी सार्थक होगा जब हम इसके वास्तविक महत्व को समझकर उसके अनुसार आचरण करें, इसलिए वर्तमान परिवेश में जरूरत है कि इस पवित्र त्यौहार पर आडम्बर की बजाय इसके पीछे छुपे हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों को अहमियत दी जाए तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सभी का कल्याण होगा।