महाराजा अग्रसेन

अग्रसेन ने जब युवा अवस्था में प्रवेश किया तब नागलोक के राजा कुमुद के यहां से राजकुमारी माधवी के स्वयंवर का समाचार आया महाराजा ने अपने दोनों पुत्रों अग्रसेन और शूरसेन को इस स्वयंवर में भाग लेने के लिए भेजा, इस स्वयंवर में भू-लोक के ही नहीं अपितु देवलोक से भी अनेक राजकुमार भाग लेने आए थे, इन्द्र भी उनमें से एक थे। राजकुमारी माधवी ने जब स्वयंवर भवन में प्रवेश किया तो उसकी रूप-राशी को देखकर इन्द्र स्तब्ध रह 

में जहाँ राजस्थान व हरियाणा राज्य है इन राज्यों के बीच सरस्वती नदी बहती थी, इसी सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर नामक एक राज्य था भारतेन्दु हरिशचन्द्र के अनुसार-मांकिल ऋषि जिन्होंने वेद-मंत्र की रचनाएं की थी, की परम्पराओं में राजा धनपाल हुए। धनपाल ने प्रतापनगर राज्य बसाया था, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित महालक्ष्मी व्रत कथा और गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ.सत्यकेतु विद्यालंकार द्वारा रचित ‘अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास’ में छपा है कि राजा धनपाल की छठी पीढ़ी में महाराजा वल्लभ प्रतापनगर के शासक बने। महाराजा वल्लभ का काल महाभारत के काल के आसपास का माना जाता है महाराजा वल्लभ के घर अग्रसेन और शूरसेन नामक २ पुत्र हुए। युवा अवस्था में पहुंचने पर अग्रसेन प्रतापनगर की शासन व्यवस्था को देखते थे और शूरसेन सैन्य संगठन के कार्य को देखते थे उनके राज्य में चारों और सुख-शांति थी। दोनों भाईयों में बहुत प्रेम था अन्य राज्यों में उनके प्रेम के उदाहरण दिए जाते थे। अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ऋषि ने महाराजा वल्लभ से कहा था कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा इनके राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हजारों-हजार वर्ष बाद भी इसका नाम अमर रहेगा माधवी स्वयंवर अग्रसेन ने जब युवा अवस्था में प्रवेश किया तब नागलोक के राजा कुमुद के यहां से राजकुमारी माधवी के स्वयंवर का समाचार आया। महाराजा ने अपने दोनों पुत्रों अग्रसेन और शूरसेन को इस स्वयंवर में भाग लेने के लिए भेजा, इस स्वयंवर में भू-लोक के ही नहीं अपितु देवलोक से भी अनेक राजकुमार भाग लेने आए थे, इन्द्र भी उनमें से एक थे। राजकुमारी माधवी ने जब स्वयंवर भवन में प्रवेश किया तो उसकी रूप-राशी को देखकर इन्द्र स्तब्ध रह गए, इन्द्र ने देखा कि देवलोक की अप्सराएँ भी राजकुमारी माधवी के सामने कुछ भी नहीं है। स्वयंवर में आए राजाओं व राजकुमारों का राजकुमारी से परिचय समाप्त होने के पश्चात माधवी ने अग्रसेन के गले में स्वयंवर की माला डाल दी। नागराज कुमुद अति प्रसन्न हुए। महलों में संख ध्वनि हुई। स्वयंवर में आए राजाओं व राजकुमारों ने अपनी ओर से बधाई और शुभकामनाएँ दीं, किन्तु दूसरी ओर इन्द्र कुपित होकर स्वयंवर स्थान से उठकर चले गए, उन्हें लगा कि माधवी ने अग्रसेन का वरण कर उनका अपमान किया है। महाराजा वल्लभ को भी प्रतापनगर समाचार भेजा गया। महाराजा वल्लभ अति प्रसन्न मन से बारात लेकर नागलोक पहुँचे, इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। देवलोक पहुँचकर इन्द्र ने मन ही मन अग्रसेन से राजकुमारी माधवी को प्राप्त करने का षड़यंत्र रचा, एक तरफ नागलोक में अग्रसेन और माधवी का विवाह हो रहा था, वहीं दूसरी ओर इन्द्र अपने अनुचरों से प्रतापनगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दे रहे थे, इन्द्र का मानना था कि जब राज्य में वर्षा नहीं होगी तो सूखे से जनता में त्राहि-त्राहि मचेगी, महाराजा वल्लभ वर्षा का अनुष्ठान करेंगे तब उनके सामने माधवी को

इन्द्र से संघर्ष

प्रतापनगर में भयंकर अकाल पड़ा, वहां पर त्राहि-त्राहि मच गई। राजा वल्लभ को जब इन्द्र के षड़यंत्र का पता चला तो उन्होंने इन्द्र से संघर्ष करने का निर्णय लिया। अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शास्त्रों का संघान कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। दिव्य अस्त्रो से वर्षा तो खूब हुई लेकिन समस्या का स्थायी समाधान नहीं था? अग्रसेन के मन में एक विचार पैदा हुआ कि मेरे कारण राज्य संकट में आ गया है, अत: मेरा यह धर्म बनता है कि मैं समस्या का स्थायी समाधान करूँ। अग्रसेन ने भगवान शंकर की आराधना करने के लिए वन में जाने का निश्चय कर लिया। शंकर एवं महालक्ष्मी की आराधना : अग्रसेन ने अपनी भार्या माधवी से सारी बातें कहीं और यह भी कहा कि वह राज्य की सुख-शांति के लिए प्रतापनगर छोड़ेंगे, माधवी ने भी उनके साथ जाने का निश्चय सुनाया किन्तु अग्रसेन ने कहा कि मेरे कारण जो कष्ट राज्य में आया है उसे मैं दूर करूँगा। अग्रसेन के संकल्प की जानकारी जब राजा वल्लभ को हुई तो वह बहुत दु:खी हुए उन्होंने अग्रसेन को समझाया कि इस वृद्ध अवस्था में पिता को छोड़कर नहीं जाना चाहिए। अग्रसेन अपने संकल्प के धनी थे, उन्होंने पिता से अनुरोध किया कि छोटा भाई सूरसेन यहां है, वह आपके साथ राज्य के कार्य को देखेगा। माधवी माता-पिता की सेवा में यहीं रहेगी भगवान शंकर का नाम लेकर अग्रसेन ने प्रतापनगर से प्रस्थान किया। काशी पहँचकर वहां पर उन्होंने भगवान शंकर की तपस्या की और उनका आह्वान किया। अग्रसेन की कठिन तपस्या को देखकर भगवान शंकर ने दर्शन दिए के लिए महालक्ष्मी को प्रसन्न करना होगा। महालक्ष्मी समृद्धि की देवी हैं उनकी समृद्धि के समक्ष इन्द्र भी कुछ नहीं हैं, यह कहकर भगवान शंकर अन्तरध्यान हो गए। अग्रसेन ने महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने का निश्चय किया। महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए एक विशाल यज्ञ किया गया जिसमें उन्होंने ब्राह्मणों को दान दिया और उसके पश्चात् वन में जाकर महालक्ष्मी जी की तपस्या आरम्भ की। महालक्ष्मी प्रसन्न न हो इसके लिए इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न की, किन्तु अग्रसेन तपस्या में लीन रहे,अनेक कठिनाईयां सहते हुए तपस्या जारी रखी। अग्रसेन की अटूट भक्ति को देखते हुए महालक्ष्मी प्रकट हुर्इं, उन्होंने अग्रसेन से कहा कि कुमार यह अवस्था तपस्या करने की नहीं है, इस उम्र में तो आपको त्याग के स्थान पर भोग करना चाहिए।

अग्रसेन माता महालक्ष्मी की अनुपम छवि देखकर अपलक निहारते रहे, उस अदभूत आभा के सामने अग्रसेन कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। महालक्ष्मी ने पुन: कहा, ‘हे राजकुमार तुम्हारी कठिन साधना पूर्ण हुई, संकट के दिन बीत गए, वरदान मांगें अग्रसेन बोले ‘हे मातेश्वरी आप सारे संसार का कल्याण करने वाली हैं, आप परमशक्ति हैं, आपसे क्या छुपा हुआ है, आप शक्ति की प्रतीक हैं एवं भक्ति की दाता हैं, मैं आपको बार-बार नमन करता हूँ’महालक्ष्मी बोली, ‘हे अग्रसेन! तुम यह कठिन तपस्या का मार्ग त्यागकर ग्रहस्थ धर्म में पुन: प्रवेश करो, इसी में तुम्हारा कल्याण है, मैं तुम्हें वरदान देती हूँ कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे, तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा’ इस पर अग्रसेन बोले, ‘हे मातेश्वरी! मेरी समस्या यह है कि इन्द्र ने मेरे राज्य में वर्षा बंद कर अकाल की काली छाया से सबको दुखी कर रखा है महालक्ष्मी ने कहा, ‘इन्द्र को अमरत्व प्राप्त है, साथ ही साथ वह ईष्र्यालु भी है, आर्य और नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसको दु:खी कर दिया है, तुम्हें वूटनीति अपनानी होगी, कोलापुर के राजा ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर रचा है, कोलापुर के राजा भी नागवंशी हैं, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो नागराज कुमुद के साथ-साथ कोलापुर नरेश की महीरथ शक्तियाँ भी तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, इन शक्तियों के समक्ष इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पड़ेगा? तुम निडर होकर अपने नए राज्य की स्थापना करो, तुम्हारे राज्य में कोई भी दु:खी नहीं होगा, ‘यह कहकर महालक्ष्मी अन्तरध्यान हो गर्इं, अग्रसेन बार-बार उस पावन भूमि को प्रणाम करने लगे, जहाँ पर माता महालक्ष्मी के चरण-कमल पड़े थे, उसी समय महर्षि नारद प्रकट हुए, नारद को देख अग्रसेन ने प्रणाम किया। महालक्ष्मी द्वारा दिए वरदान से नारद को अवगत कराया और बोले, ‘हे महर्षि! माता महालक्ष्मी के आदेश को पालन करने में मेरा मार्ग दर्शन करें और कोलापुर की यात्रा के लिए मुझे भी अपने साथ ले चलें‘ नारद ने अग्रसेन को साथ लेकर कोलापुर के लिए प्रस्थान किया। सुन्दरावती स्वयंवर: अग्रसेन महर्षि नारद के साथ कोलापुर पहुँचे। कोलापुर में नागराज महीरथ का शासन था, उन्होंने देखा कोलापुर, इन्द्र की अल्कापुरी को भी मात दे रहा था सम्पूर्ण कोलापुर नगरी

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