राजस्थान के कलात्मक पहलू

पधारो म्हारे देश

राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र की सुंदर एवं कलात्मक हवेलियों को कैनवास पर सजीव करने वाले कलाकार गोपाल स्वामी खेतानची है, जिन्होंने ना केवल कलात्मक पेंटिंग बनाई है, वरन् पूरे राजस्थानी कला को मुंबई महानगर में सजीव कर दिया, मूल रूप से सरदार शहर में जन्में श्री गोपाल स्वामी ने अपने शिक्षा कला स्नातक पाई, अपनी शिक्षा के बाद उन्होंने अपना रूख मुंबई शहर की ओर किया|यहां उन्होंने कई फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर का कार्य किया, किंतु पिता से मिली हुई ड्राइंग एवं कला की विरासत, उन्हें हमेशा कुछ न कुछ नया करने के लिए प्रेरित करती रही, अतः उन्होंने राजस्थानी हवेलियों की कलात्मकता को कैनवास पर उतारना शुरू किया, आज उनके पास बेहतरीन कलाकृतियों का सुंदर संग्रह है, उनके द्वारा बनाई गई पेंटिंग की प्रदर्शनी, गत दिनों मुंबई के नेहरू प्लैनेटेरियम में दिखाई दी, जहां उन्होंने अपने द्वारा किए गए कुछ कलात्मक कार्य को प्रदर्शित किया। राजस्थानी समाज के लोगों के लिए यह एक सुनहरा अवसर था कि अपने पुरखों के हवेली की यादगार को, अपने बचपन की स्मृति को, महानगर में सजीव होता देखें, श्री गोपाल स्वामी ने पहले भी इस तरह की विभिन्न प्रदर्शनों में हिस्सा लिया है, जैसे, श्रृंगार, धरोहर, गांधीगिरी, ऐसे अनेक प्रदर्शनों में अपनी कला का प्रदर्शन किया है, इनकी एक कृति ‘नाथद्वारा की राधा’ को मोनालिसा आधारित बुक में भी स्थान मिला है‘मेरा राजस्थान’ परिवार के लिए गर्व की बात है कि महानगर की भागती दौड़ती-जिंदगी में पुरानी कला को फिर से अपने सामने सजीव होते हम देख सकते हैं। मुंबईकरों के लिए यह एक सुखद अनुभव है, कई कला पारखीयों ने भी उनकी पेंटिंग का स्वागत किया है, कई लोगों ने इन पेंटिंग को अपने ड्राइंग रूम में सजाने के लिए क्रय किया, जो यह दर्शाता है कि कला की कद्र हर समय होती है संपर्क जरूरत है, उन पारखी नज़रों का मिलना।

विभिन्न हवेलियों को चित्रों के माध्यम से देखते हुए, जब मैंने गोपाल स्वामी से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि पुराने समय पर यह कलाकारी ‘जब हवेली को चूना लगाया जाता है, उस समय कर दी जाती थी’, जिससे वह पेंटिंग, उस कलर का एक हिस्सा बन जाती थी एवं प्राकृतिक कलर होने के कारण उन की चमक सदियों तक बनी रहती थी, अब ना तो इस तरह के कलर रहे, ना ही बनाने वाले कलाकार, यह कला धीरे-धीरे लुप्त होती गई, आज इसके जीर्णोद्धार का कार्य भी हम लोग पूरी तरह से नहीं कर पाते, क्योंकि अभी उपलब्ध रंगों में केमिकल मिक्स होते हैं, जो अधिक समय तक नहीं टिक पाते, इसलिए इन हवेलियों को फिर से उसी तरह कलात्मक ढंग से सजाना संभव नहीं है। पहले कला को राजआश्रय प्राप्त था, अतः कलाकार कभी भी अपने जीवन व्यापन की चिंता करे बिना कला को पूरा जीवन समर्पित कर देता था, उस समय उसे अपनी कला के बदले जितना वह सोचता था, उससे अधिक पारिश्रमिक मिलता था किंतु आज स्थितियां बदल गई हैं आज कला की साधना के साथ-साथ उसे जीवन यापन का भी ध्यान रखना पड़ता है, अतः उसके समर्पण के लक्ष्य, विचलित हो जाते हैं, उसकी सोच में व्यवसायीकता आ जाती है, जो कि कलाकार को उसकी कला के अंतिम छोर तक नहीं पहुंचने देता, किंतु फिर भी इन विषम परिस्थितियों में एक कलाकार का अपनी कला के प्रति समर्पित होना सराहनीय है।

-दीनदयाल मुरारका
मुंबई

नारी की विविध भूमिकाएं

महर्षि रमण: समाज में नारी जाति पर यदि गहराई से चिन्तन किया जाये, उसकी विविध भूमिकाओं को समझा जाये तो निर्विवाद रूप से ये कहा जा सकता है कि समाज के नवनिर्माण में उसकी भूमिकाओं की सीमा पुरूष से कहीं अधिक ऊँची होती है।
एक माँ भी, एक गुरू भी: ९ माह तक अपने गर्भ में रखने के उपरांत जब वह अपनी संतान को जन्म देती है तो एक माँ के साथ-साथ संतान के लिए एक गुरू की भूमिका भी निभाने लगती है, बचपन में माँ के द्वारा दिए गए संस्कार और मूल्य और उसका वात्सल्य बालक के भावी जीवन और उसके उज्जवल भविष्य के निर्माण में एक नींव का पत्थर सिद्ध होते हैं।
एक पत्नी: किशोरावस्था के समापन और युवावस्था के प्रारंभ होने पर विवाहोपरान्त एक नारी की दोहरी भूमिकाएं देखी जा सकती है। दो परिवारों के मध्य वह एक कड़ी का काम करती है, पूर्ण निष्ठा के साथ दोनों परिवारों को पुष्पित और पल्लवित करने में अपना सर्वस्व लगा देती है।
एक बहन: विवाह उपरान्त चाहे वह दूसरे परिवार में चली जाये फिर भी समय पर भाई के रक्षा सूत्र बाँधकर उसके उज्जवल भविष्य की कामना तो करती ही है साथ ही भाई को अपनी सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी सौंप देती है।
एक पुत्री: आज के पुरूष प्रधान समाज में पुत्र को पुत्री से श्रेष्ठ समझा जाता है। पुत्र उत्पन्न होने पर प्रसन्नता और पुत्री के जन्म पर उदासीनता के भाव दिखने लगते हैं, इसके उपरान्त भी पुत्री बड़ी होकर अपने माता-पिता
और भाई-बहन और उनके सम्पूर्ण परिवार के प्रति समर्पित रहती है, उनके दु:ख-दर्द को, किसी भी प्रकार की समस्याओं को स्वयं का मानकर उनको दूर करने में अपनी भागीदारी निभाती है। एक पुत्री में इस प्रकार की संवेदनशीलता के गुण होने के फलस्वरूप ही आज अनेक परिवारों में संतान के रूप में एक पुत्री का होना एक आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है।
एक मित्र: नारी एक पत्नी ही नहीं अपितु अपने पति के लिए एक मित्र भी होती है, जिस प्रकार एक मित्र अपने मित्र को किसी भी प्रकार की उलझनों में देखकर चिंताओं से घिरा मानकर बड़ी सहानुभूति के साथ उसे सांत्वना देने का प्रयास करता है, उसी प्रकार एक पत्नी भी अपने पति को किसी भी प्रकार के संकट में पाकर एक मित्र की भांति उसकी सहभागी बनती है।
एक शक्ति: नारी को पुरूष की शक्ति के रूप में माना गया है, नारी के बिना वह अधूरा होता है, जैसे किसी भी धार्मिक कार्य अथवा अनुष्ठान आदि में पत्नी को साथ लिए बिना वह उन कार्यों को सम्पन्न नहीं कर सकता, वही एक शक्ति है जो उन कार्यों को विधिवत सम्पन्न कराने में सक्षम होती है। भगवान शिव भी पार्वती को एक शक्ति के रूप में मानकर अपने वामांग में स्थापित करते हुए अद्र्धनारिश्वर कहलाये। नारी की यह भूमिकाएं वैसे प्रारंभ से चली आ रही है। कहा जाता है कि जहां नारी की पूजा होती है वहीं देवता निवास करते हैं, उस परम्परा का आज भी समाज में औपचारिक रूप से निर्वहन किया जा रहा है, नवरात्रों के अवसर पर दुर्गा पूजा, कन्याओं का सम्मान आदि उसी परम्परा का द्योतक है, इसके उपरान्त भी आज नारी की जो स्थिति सामने आ रही है, दयनीय है, उसे हाड़-मांस की बनी एक पुतली समझकर उसके साथ दुष्कर्म, बलात्कार, अपहरण एवं जीवित जला देने जैसी घटनाएं दिन-रात सुनाई देती है। पुरूष प्रधान समाज नारी को अपनी मात्र भोग्या समझकर उसका देह शोषण करता है, परन्तु इस प्रकार की घटनाओं के लिए केवल पुरूष, इस प्रकार की घटनाओं के लिए दोषी नहीं है, जब नारी लीक से हटकर अपनी भूमिकाएं निभाने लगती है तो वही उसके के साथ आज नारी जाति में चेतना, एक प्रकार की जागरूकता के लक्षण दिखाई देने लगे हैं, आज हर समाज में इस सच्चाई को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि आज की लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों के मुकाबले आगे बढ़ती जा रही है। नारी जाति में इस प्रकार का कायापलट सराहनीय है, समयोचित है। आज हम देखते हैं कि हर राज्य में महिला आयोग बने हुए हैं। नारी जाति पर होने वाले सभी प्रकार के अत्याचारों अथवा उत्पन्न होती विकृतियों के निराकरण का दायित्व इन महिला आयोगों को दिया जाता है, इसी संदर्भ में ध्यान देने की बात यह है कि आज समाज में महिला संगठनों का गठन इसी दृष्टि से किया जाता है, आवश्यकता इस बात की है ऐसे महिला संगठन अपनी क्षमताओं और दायित्वों को समझें, अपनी भूमिका पर चिन्तन करें और एक लक्ष्य रखकर नारी जाति का उत्थान करने में योगदान दें, ऐसा करने पर ही उनकी सार्थकता सिद्ध हो सकती है।

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