प्राच्यविद्या सम्मेलन

युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी इस युग के क्रान्तिकारी आचार्यों में एक थे। जैन धर्म को जन धर्म के रूप में व्यापकता प्रदान करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे तेरापंथ धर्मसंघ के नौवें आचार्य हुए। आचार्य श्री तुलसी का जन्म वि.सं.१९७१ कार्तिक शुक्ला द्वितीया को लाडनूं (राजस्थान) में हुआ। उनके पिता का नाम झूमरमलजी खटेड़ एवं माता का नाम वदनां जी था। नौ भाई बहनों में उनका आठवां स्थान रहा। प्रारम्भ से ही वे एक होनहार व्यक्तित्व के धनी रहे थे। वि.स.१९८२ पौषकृष्णा पंचमी को लाडनूं में ग्यारह वर्ष की अवस्था में पूज्य कालूगणी के करकमलों से उनका दीक्षा-संस्कार सम्पन्न हुआ। ग्यारह वर्ष तक गुरू की पावन सन्निधि में रहकर मुनि तुलसी ने शिक्षा एवं साधना की दृष्टि से अपने व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास दिया। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का तथा व्याकरण, कोश, साहित्य, दर्शन, एवं जैनागमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। लगभग बीस हजार श्लोक परिमाण रचनाओं को कण्ठस्थ कर लेना उनकी प्रखर प्रतिभा का परिचय है। संयम जीवन की निर्मल साधना, विवेक-सौष्ठव, आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन, बहुश्रुतता, सहनशीलता, गंभीरता, धीरता, अप्रमत्त्तता, अनुशासननिष्ठा आदि विविध विशेषताओं से प्रभावित होकर अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी ने वि.स. १९९३ भाद्रपद शुक्ला तृतीया को गंगापुर में उन्हें अपने उतराधिकारी के रूप में मनोनीत किया। युवाचार्य पद पर रहने का सौभाग्य आचार्य श्री तुलसी को मात्र चार दिन का ही मिला। भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को पूज्य कालूगणी दिवंगत हो गए। बाईस वर्षीय मुनि तुलसी के युवा कन्धों पर विशाल धर्मसंघ का दायित्व आ गया। वे भाद्रपद शुक्ला नवमी को आचार्य पद पर आसीन हुए। उस समय तेरापंथ संघ में १३९ साधु व ३३३ साध्वियां थीं। आचार्य पद का दायित्व संभालने के बाद आचार्य श्री तुलसी का ग्यारह वर्ष का समय धर्मसंघ के आन्तरिक निर्माण का समय था। निर्माण की इस श्रृंखला में उन्होंने सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य किया साध्वी समाज में शिक्षा के प्रसार का। आज साध्वी समाज में शिक्षा की दृष्टि से बहुमुखी विकास हुआ है। इसके एकमात्र श्रेयोभागी हैं- आचार्य श्री तुलसी। नैतिक क्रांति, मानसिक शांति और व्यक्तित्व निर्माण की पृष्ठभूमि पर आचार्य श्री ने तीन अभियान चलाए – अणुव्रत आन्दोलन, प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान। ये तीनों ही अभियान अनुपम हैं, अपूर्व हैं और अपेक्षित हैं। पारमार्थिक शिक्षण संस्था एवं जैन विश्वभारती की आध्यात्मिक प्रवृतियों का विकास आचार्यवर के जीवनकाल की विशिष्ट उपलब्धि रही। जैन विश्वभारती विद्वानों, शिक्षाविदों, दार्शनिकों एवं योगसाधकों की जिज्ञासा का केन्द्र बनी हुई है। आचार्यश्री के सद्प्रयत्नों से जैन विश्वभारती संस्थान मान्य विश्व विद्यालय के रूप में कार्यरत है। समण श्रेणी की स्थापना आचार्यश्री तुलसी का एक ऐतिहासिक, दूरदर्शितापूर्ण और साहस भरा कदम है। आचार्यश्री तुलसी के जीवन का हर कोण उपलब्धियों से भरा-पूरा प्रतीत होता है। उनके कार्यस्रोत विविध दिशागामी हैं। वे एक कुशल अनुशास्ता, समाज-सुधारक, नारी-उद्धारक, धर्मक्रांति के सूत्रधार, मानवता के मसीहा, जैन दर्शन के मर्मज्ञ एवं महान विचारक, चिन्तक व साहित्यकार हैं। उनकी मानवीय सेवाओं के मूल्यांकन स्वरूप युगप्रधान के रूप में उनका अभिनंदन, यूनेस्को के डायरेक्टर लूथरइवेन्स, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिज्ञ वेकन आदि विदेशी व्यक्तियों द्वारा उनकी नीति का समर्थन, जर्मन विद्वान होमयोराउ द्वारा विदेश आने का निमंत्रण, राष्ट्रीय एकता परिषद में सदस्य के रूप में मनोनयन, राजस्थान उदयपुर यूनिवर्सिटी द्वारा भारत ज्योति अलंकरण, केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ वाराणसी द्वारा वाचस्पति (डी लिट्) मानद अलंकरण, राष्ट्रीय एकता के विकास में उल्लेखनीय भूमिका के लिए सन १९९२ में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से सम्मानित, महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन द्वारा हकीम खां सूर सम्मान आदि आदि – तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास के ऐसे स्वर्णिम पृष्ठ हैं जो काल के भाल पर सदा अंकित रहेंगे। सन १९९७ मे गंगाशहर में उन्होने देवलाक गमन किया।
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