शुभ दीपावली​

रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है, अलगअलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है, इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है, सामान्यत: त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है, इसमें साधारण ज्यामितिक आकार हो सकते हैं या फिर देवी-देवताओं की आकृतियाँ, इनका प्रयोजन सजावट और सुमंगल है, इन्हें प्राय: घर की महिलाएँ बनाती हैं। विभिन्न अवसरों पर बनाई जाने वाली इन पारंपरिक कलाकृतियों के विषय अवसर के अनुवूल अलग-अलग होते हैं, इसके लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पारंपरिक रंगों में पिसा हुआ सूखा या गीला चावल, सिंदूर, रोली, हल्दी, सूखा आटा और अन्य प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है परन्तु अब रंगोली में रासायनिक रंगों का प्रयोग भी होने लगा है। रंगोली को द्वार की देहरी, आँगन के वेंद्र और उत्सव के लिए निश्चित स्थान के बीच या चारों ओर बनाया जाता है, कभी-कभी इसे पूलों, लकड़ी या किसी अन्य वस्तु के बुरादे या चावल आदि अन्न से भी बनाया जाता है। रंगोली का इतिहास : रंगोली का एक नाम ‘अल्पना’ भी है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में भी

मांडी हुई अल्पना के चिन्ह मिलते हैं, अल्पना वात्स्यायन के काम-सूत्र में वर्णित चौसठ कलाओं में से एक है, यह अति प्राचीन लोक कला है, इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणत: यह जाना जाता है कि ‘अल्पना’ शब्द संस्कृत के – ‘ओलंपेन’ शब्द से निकला है, ‘ओलंपेन’ का मतलब है – लेप करना। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धनधान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते हैं और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं, इसी दृष्टिकोण से ‘अल्पना’ कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ, बहुत से व्रत या पूजा, जिनमें की ‘अल्पना’ दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, का मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध ५००० वर्ष पूर्व की मोहनजोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आंदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान गुरुसहाय दत्त के अनुसार ‘कमल का पूâल’ जिसे बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहन जोदड़ो के समय के कमल के पूâल का प्रतिरूप ही है’ कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई है, जो इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे, उनके अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है, उस समय के लोगों ने कुछ देवी-देवताओं व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रखा था जिसके अभ्यास से अच्छी फसल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थी। अल्पना के इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर आचार्य रविंद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन के कला भवन में अन्य चित्रकला के विषयों के साथ-साथ इस कला को भी एक अनिवार्य विषय बनाया, आज यह कला शांति निकेतन की ‘अल्पना’ के नाम से जानी जाती है, इस कला में गोरी देवी का नाम चिरस्मरणीय रहेगा जो अल्पना की जननी मानी जाती है।

रंगोली का उद्देश्य

दीपावली के अवसर पर घर में चित्रित रंगोलीरंगोली धार्मिक-सांस्कृतिक आस्थाओं की प्रतीक रही है, इसको आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है तभी तो विभिन्न हवनों एवं यज्ञों में ‘वेदी’ का निर्माण करते समय भी माँडने बनाए जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में घर-आँगन बुहारकर लीपने के बाद रंगोली बनाने का रिवाज आज भी विद्यमान है। भूमिशुद्धिकरण की भावना एवं समृद्धि का आखान भी इसके पीछे निहित है। ‘अल्पना’ जीवन दर्शन की प्रतीक है जिसमें नश्वरता को जानते हुए भी पूरे जोश के साथ वर्तमान को सुमंगल के साथ जीने की कामना और श्रद्धा निरंतर रहती है, यह जानते हुए भी कि यह कल धुल जाएगी, जिस प्रयोजन से की जाती है, वह हो जाने की कामना ही सबसे बड़ी है। त्योहारों के अतिरिक्त घर-परिवार में अन्य कोई मांगलिक अवसरों पर या यूँ कहें कि रंगोली सजाने की कला अब सिर्पâ पूजा गृह तक सीमित नहीं रह गई है, स्त्रियाँ बड़े शौक एवं उत्साह से घर के हर कमरे में तथा प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाती हैं, यह शौक स्वयं उनकी कल्पना का आधार तो है ही, नित-नवीन सृजन करने की

भावना का प्रतीक भी है। रंगोली में बनाए जाने वाले जैसे स्वस्तिक, कमल का पूल, लक्ष्मीजी के पग (पगलिए) इत्यादि समृद्धि और मंगलकामना के सूचक समझे जाते हैं, आज कई घरों, देवालयों के आगे नित्य रंगोली बनाई जाती है। रीति-रिवाजों को सहेजती-सँवारती यह कला आधुनिक परिवारों का भी अंग बन गई है। शिल्प कौशल और विविधतायुक्त कलात्मक अभिरुचि के परिचय से गृह-सन्न के लिए बनाए जाने वाले कुछ माँडणों को छोड़कर प्राय: सभी माँडणे किसी मानवीय भावना के प्रतीक होते हैं और इस प्रकार ये हमारी सांस्कृतिक भावनाओं को साकार करने में महत्त्वपूर्ण साधन माने जाते हैं, हर्ष और प्रसन्नता का प्रतीक रंगोली रंगमयी अभिव्यक्ति है। विभिन्न प्रांतों में रंगोली : रंगोली एक अलंकरण कला है जिसका भारत के अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग नाम है। उत्तर

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