श्रीडूँगरगढ़
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श्रीडूँगरगढ़ राजस्थान के बीकानेर जिले का एक प्रगतिशील क़स्बा है, प्रकृति द्वारा निर्मित चारों तरफ रेतीले टिल्लों से घिरा अपने आप में एक दर्शनीय स्थल है, इसकी बसावट एक प्याले के आकार की है तथा शहर के एक किनारे से दूसरे किनारे के सीधे रास्तों के कारण आर-पार देखा जा सकता है एवं प्रत्येक रास्ता चौराहा बनाता है। बीकानेर – दिल्ली रेलवे मार्ग एवं राष्ट्रीय राजमार्ग -११ पर बीकानेर से ७० किमी. पहले स्थित है, इसकी वर्तमान आबादी ग्रामीण क्षेत्र २४१०८४ तथा शहरी ५३३१२ जिसमें पुरूषों की १५३५५३ एवं महिलाओं की १४०८४२ हैं, जो नगरपालिका मंडल के ३० वार्डो में विभाजित हैं, श्रीडूँगरगढ़ तहसील राजनीतिक परिपेक्ष में ९७ ग्राम एवं ३० ग्राम पंचयातें, ३० सरपंच, १५ पंचायत समिती सदस्य, ४ जिला परिषद सदस्य, १ विधायक, १ नगरपालिका अध्यक्ष तथा ३० पार्षद हैं, शैक्षणिक क्षेत्र में लगभग ३० हजार छात्र – छात्राओं का अध्ययन श्रीडूँगरगढ़ में हो रहा हैं।
श्रीडूँगरगढ़ के १३८ वर्ष पुराने इतिहास से पहले कई शोधपूर्ण तथ्यों के आधार पर कभी यहाँ सरस्वती नदी बहती थी तथा यह एक उपजाऊ क्षेत्र था, एक बार आये विनाशकारी भूकम्प ने यहाँ की प्राकृतिक एवं भौगोलिक स्थिति को पूर्ण रूप से बदल दिया तथा सरस्वती नदी विलुप्त हो गयी एवं सम्पूर्ण भू- भाग रेगिस्तान में परिवर्तित हो गया और यहाँ रेतीले टीले बन गये।
श्रीडूँगरगढ़ का जनपद के रूप में गठन सन १८८० (बिक्रम सम्बत १९३७) को प्राचीन सारसू व रूपालसर ग्रामों को मिला कर किया गया था, तत्कालीन बीकानेर के नरेश महाराजा डूँगरसिंह ने इसे बसाया था। तेरापंथ इतिहास में सन १९३६ में श्री डूँगरसिंह द्वारा नींव रखने का उल्लेख मिलता है, वी. सं. १९३६ में महाराजा श्री डूँगरसिंह ने संतोषचन्द सेठिया को रामसही का रूक्का प्रदान कर १०२६ बीघा भूमि (१००१ बीघा भूमि खेती के लिये एवं २५ बीघा भूमि श्रीडूँगरगढ़ को बसाने के लिए) उपहार स्वरूप प्रदान की थी। तत्कालीन बेलासर के तहसीलदार ठाकुर छोगसिंह ने पहले एक नारियल में पट्टे का आवंटन किया तथा फिर सवा रूपया पट्टे की कीमत रखी गयी ।
सारसू के कलिया राजपूत एवं रूपलासर के राठौड़ (बिका) पट्टयत थे, जैसलमेर (लोद्रवा) से नागौर (अहिच्छ्त्रपुर) होते हुए सारस्वत ब्राह्मण समाज के संत सरसजी सबसे पहले इस क्षेत्र में आकर पट्ट्यात बने, नागौर के तत्कालीन राजा पृथ्वीराज चौहान ने इनको १४४४ ग्राम पट्टे में दिये, तत्पश्चात इन्होंने सन १११६ (वि सं ११७३) में मोमासर बास को अपनी राजधानी बनाया, शीलालेखों के आधार पर रूपा तथा राजू कलिया इस क्षेत्र के पट्टयत थे, सारसू से उत्तर – पश्चिम के भाग में सन १४९८ -१५०३ (वि सं. १५५५ – ६०) के बीच राव बीका के रिश्तेदार किशानसिंह ने यहाँ के कलिया सरदार रूपा को लड़ाई में मार कर उसकी अन्तिम इच्छा के अनुसार रूपालसर बास बसाया, जिस पर किशनसिंह बीका के वंशजों का वि सं. १९३७ तक पट्ट्यात के रूप में अधिकार रहा, श्रीडूँगरगढ़ की स्थापना का पहला पट्टा विसंवत १९३७ अर्थात १३८ वर्ष पूर्व ‘जैनीयों के उपासरे’ के नाम से बना।
श्रीडूँगरगढ़ में रूपालसर बास जो उत्तरी-पश्चिम हिस्सा है वो अब कालू बास के साथ एकाकार हो चुका है, जोशी, व्यास, सारस्वत, सारण, गोदारा, बीका आदि आज इस बास में बस रहे हैं, डेलवां चौक भी इसी का हिस्सा हैं। वर्तमान में मुख्य रूप से कालुबास (उत्तरी-पश्चिमी भाग) मोमासार बास (कीतासर बास सहित दक्षिणो पश्चिमी भाग) आडसर बास (उत्तरी-पूर्वी भाग) तथा बिग्गा बास (दक्षिणी-पूर्वी भाग) प्रसिद्ध हैं।
एक समय ऐसा था वित्तीय संसाधनों एवं अन्य सुविधाओं की कमी के कारण श्रीडूँगरगढ़ से बाहर आसाम, बंगाल, उड़ीसा, महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में व्यापार एवं अर्थोपार्जन हेतु जाना एक मजबूरी थी, किन्तु अब समय में काफी परिवर्तन आ चुका है, जमीनों एवं कृषि उत्पादों की कीमतों में भारी बढोत्तरी के कारण वित्तीय संसाधनों की प्रचुरता हो गयी है तथा नयी पीढी की व्यक्तिगत विचारधाराओं में भी परिवर्तन आ गया है, इसी का परिणाम है कि श्रीडूँगरगढ़ की जमीनों की कीमते कोलकाता से भी कहीं ज्यादा हो चुकी है तथा फ्लेट प्रणाली (आँनरसीप) को लोग अपनाने लगे हैं, इससे आभास होने लगा है कि अब श्रीडूँगरगढ़ विकास के रास्ते पर अग्रसर होने लगा है, बस हमें किसी रूप से पैतृक क्षेत्र से जुड़े रहने की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है।
यहा के वर्तमान विधायक गिरधारीलाल महिया व नगरपालिका अध्यक्ष प्रियंका सारस्वत जी है।