श्री मारवाड़ी समाज
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गुलबर्गा
गुलबर्गा: दिनांक २० नवम्बर २०१८ को गुलबर्गा-कुलकर्णी के मारवाड़ी समाज कि सर्वसाधारण सभा सम्पन्न हुई, जिसमें ११ नए कार्यकारिणी सदस्यों के चुना गया। वल्लभदास सारड़ा को गुलबर्गा ने २५ वर्षों तक मारवाड़ी समाज में अध्यक्ष पद का परभर संभाला, इनका अपने समाज में अच्छा दव दल था उनके अध्यक्ष कार्यकाल में मारवाड़ी समाज में ने बहुत प्रगति का है।वल्लभदास जी की वर्तमान आयु ८० वर्ष है फिर भी व समाज कार्यो में सदैव सक्रिय भूमिका निभा रहे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी बुलंद आवाज है। वे बुजुर्ग के साथ बुजुर्ग बन जाते थे, बड़ो के साथ बड़े, बच्चों के साथ बच्चे और अमिर गरिब सभी लोगो में वे पसंदिदा थे। उनमें एक अद्भुत शक्ति थी तेज था जो आज गुलबर्गा में सारडा परिवार एक नाम है पहचान है। श्री वल्लभदास सारडा को उनके भाई राधेश्यामजी सारडा का हमेशा सहयोग मिला है।
कृष्णा कुमारी का आत्मबलिदान
कृष्णा कुमारी मेवाड़, उदयपुर की राजपूत राजकुमारी थीं। वह मेवाड़ के राणा भीमसिंह की पुत्री थीं। मेवाड़ के राणा भीमसिंह ने अपनी पुत्री कृष्णा कुमारी की सगाई मारवाड़ के भीमसिंह के साथ निश्चित कर दी थी। किन्तु दुर्भाग्य से सन् १८०३ ई. में मारवाड़ के भीमसिंह की मुत्यु हो गयी। इस समय कृष्णाकुमारी की आयु मात्र ९ वर्ष की थी। भीमसिंह की मृत्यु के बाद कृष्णाकुमारी के पिता राणा भीमसिंह ने आमेर (जयपुर) के जगतसिंह के साथ कृष्णाकुमारी की सगाई निश्चित कर दी। किन्तु मारवाड़ के उत्तराधिकारी चचेरे भाई मानसिंह आदि मेवाड़ के राणा भीमसिंह द्वारा उनकी पुत्री कृष्णाकुमारी की सगाई आमेर के जगतसिंह के साथ किए जाने के विरुद्ध थे। वे कृष्णा कुमारी से शादी करना चाहते थे, क्योंकि पहले कृष्णाकुमारी की सगाई मारवाड़ के भीमासिंह के साथ निर्धारित हो चुकी थी, इसलिए यह उनके लिए प्रतिष्ठा की बात थी। जयपुर के जगतसिंह तथा मारवाड़ (जोधपुर) के मानसिंह ने उदयपुर की ओर बढ़ते हुए ग्वालियर के मराठा राजा दौलतराव शिन्दे को मारवाड़ के मानसिंह ने सहयोग देने के लिए प्रेरित किया। मानसिंह ने इस हेतु दौलतराव शिन्दे को न केवल बहुत अधिक धन दिया अपितु उनके वचन का पालन करने का वादा भी किया। दौलतराव शिन्दे ने माँग की कि जयपुर की सेना मेवाड़ को छोड़कर चली जायेकिन्तु जब यह माँग पूरी नहीं हुई तो मारवाड़ और ग्वालियर की मराठा सेना ने मिलकर मेवाड़ की सेना को पराजित किया तथा मेवाड़ पर मराठाओं ने प्रभावी नियंत्रण स्थापित कर लिया। मेवाड़ पर विजय और मराठाओं का नियंत्रण स्थापित हो जाने के बाद दौलतराव शिन्दे ने मारवाड़ का साथ छोड़ दिया और स्वयं कृष्णाकुमारी से विवाह करने के लिए उद्यत हो गया।
मेवाड़ की राजकुमारी कृष्णा कुमारी से विवाह को लेकर जब शिन्दे का व्यवहार बहुत ही उग्र रूप ले चुका था, तब इंदौर के मराठा शासक यशवंतराव होल्कर, पठान अमीर खाँ आदि जिन्होंने पहले जयपुर का सहयोग किया था, अब वे मारवाड़ (जोधपुर) के समर्थक बन गए। बीकानेर के महाराजा सूरत सिंह भी जयपुर की सहायतार्थ आए। परबतसर के निकट दोनों सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। राठौड़ों में पारस्परिक फुट थी। इस कारण मारवाड़ के महाराजा मानसिंह से असंतुष्ट राठौड़ सामन्त जयपुर की सेना के साथ मिल गए। परिणामस्वरूप महाराजा मानसिंह को युद्ध के मैदान से भागकर जोधपुर के किले में शरण लेनी पड़ी। जयपुर की सेना ने पीछा करते-करते जोधपुर के किले को घेर लिया। इसी मध्य जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने नवाब अमीरखाँ पिंडारी को अधिक धन देकर अपनी ओर मिला लिया। इस परिस्थिति में जयपुर के महाराजा जगतसिंह को बाध्य होकर जोधपुर किले का घेरा उठाना पड़ा। इसके साथ ही अमीरखाँ ने जोधपुर के महाराजा मानसिंह को परामर्श दिया कि क्यों नहीं उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा कुमारी को मरवा दिया जाए जिससे इस विवाह को लेकर भविष्य में जयपुर-जोधपुर के बीच प्रतिष्ठा के नाम पर युद्ध होने की आशंका ही समाप्त हो जाए। जोधपुर के महाराजा मानसिंह को अमीरखाँ का सुझाव उचित लगा तथा उन्होंने इसका दायित्व स्वयं अमीरखाँ को सुपुर्द कर उसे उदयपुर के लिए रवाना कर दिया।
अमीरखाँ ने उदयपुर पहुँचकर मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह की ओर से नियुक्त वकील अजीतासिंह चुण्डावत के माध्यम से महाराणा को सन्देश भिजवाया कि- ‘‘या तो महाराणा अपनी पुत्री राजकुमारी कृष्णा कुमारी का विवाह जोधपुर के महाराजा मानसिंह के साथ सम्पन्न कर दें अथवा राजकुमारी को मरवा डाले।’’ अपने संदेश के साथ ही अमीरखाँ पिंडारी ने यह धमकी भी दी थी कि यदि उसके प्रस्ताव को अस्वीकार किया गया तो वह मेवाड़ में लूटपाट करके उसे बर्बाद कर देगा। इस समय मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह मराठों की लूटपाट और उपद्रव आदि घटनाओं के कारण पहले से ही बहुत तंग हो चुके थे। मेवाड़ की प्रजा दयनीय स्थिति में थी। मेवाड़ की आर्थिक स्थिति खराब थी और सैन्य शक्ति भी बहुत क्षीण हो गयी थी। साथ ही वकील अजीतसिंह चुण्डावत जैसे गद्दार ने अमीरखाँ का डर दिखाकर महाराणा की मानसिक स्थिति को और अधिक निर्बल कर दिया था। इस कारण बाध्य होकर महाराणा भीमसिंह ने राज्यहित में राजकुमारी कृष्णाकुमारी का बलिदान देने का निश्चय करके, शरबत में जहर मिलाकर उसे पीने के लिए भिजवा दिया। राजकुमारी कृष्णाकुमारी की माता महारानी चावड़ी को जब यह ज्ञात हुआ कि उसकी पुत्री को जहर का प्याला भिजवाया गया है, वह दु:ख से विह्वल होकर विलाप करने लगी। इस पर कृष्णाकुमारी ने विषपान करने के पूर्व अपनी माता से कहा-‘‘आप व्यर्थ में क्यों विलाप कर रही हैं? आपकी पुत्री मृत्यु से नहीं डरती। फिर राजकन्याओं और राजकुमारों का जन्म भी तो अपनी प्रजा एवं राज्य-हित में आत्म-बलिदान करने के लिए ही तो होता है। यह मेरे पिता का अनुग्रह है कि अब तक मैं जीवित हूँ। प्राणोत्सर्ग द्वारा अपने पूज्य पिताश्री के कष्ट दूर कर राज्य व प्रजा की रक्षा में अपने जीवन को सफल एवं सार्थक बनाने का अवसर मुझे आज मिला है, जिसे मैं हाथ से कतई जाने नहीं दूँगी।’’
इतना कहने के उपरान्त अपने वंश की रक्षा करने के उद्देश्य से उसने विषमान करके १६ वर्ष की अल्पायु में २१ जुलाई, १८१० ई. को अपनी इहलीला समाप्त कर ली। कृष्णाकुमारी की मृत्यु के बाद एक दशक भी पूरा नहीं हो पाया कि सभी राजपूत और पठान राजाओं, शिन्दे, होल्कर आदि सभी ने ब्रिटिश शासन की अधीनता को स्वीकार कर लिया। कृष्णाकुमारी के आत्म बलिदान के बाद उसकी माता महारानी चावड़ी ने अन्न-जल का परित्याग कर दिया और इसके कुछ समय बाद उनका प्रााणान्त हो गया। गद्दार अजीतासिंह चुण्डावत की पत्नी और उसके दोनों पुत्र भी एक माह के भीतर ही मर गए। नि:संदेह राजकुमारी कृष्णा कुमारी ने आत्मोत्सर्ग करके भी मेवाड़ राजवंश और प्रजाहित की रक्षा करने कर अनुकरणीय प्रयास किया। उस वीरांगना का आत्मबलिदान इतिहास के स्वर्ण-पृष्ठों में अंकित रहेगा। उदयपुर के सिटी पैलेस में राजकुमारी कृष्णा कुमारी के स्मारक के रूप में ‘कृष्ण महल’ बना हुआ है जो उनकी यशोगाथा का परिचायक है।
– प्रो. मिश्री लाल मांडोत