राजस्थानी लोकनाट्य
राजस्थानी लोकनाट्य लोक अर्थात जन-जन के कंठ पर आसीन साहित्य ही लोकसाहित्य है, इस कंठासीन साहित्य से तात्पर्य मौखिक अथवा वाचिक साहित्य से है, यह साहित्य परम्पराशील होता है और उन लोगों में व्याप्त होता है जो दिखावे से दूर सहज प्रवृत्तियों में संस्कारित होते हुए परिपाटीगत आस्था एवं विश्वासों की डोर में बंधे सामूहिक जीवन के सहयात्री होते हैं,वे समष्टिगत धर्म-कर्म तथा अध्यात्म- अनुष्ठान के जीवनचक्र से बंधी लोकमानसीय प्रज्ञा-मनीषा के महत्वपूर्ण हिस्से होते हैं, उनका व्यक्ति गौण होता है, वे समग्रत: लोक के वशीभूत होते हैं, यही कारण है कि उनमें प्रचलित गीत, नाट्य, कथा, वार्ता, प्रहसन, नृत्य, शिल्प,...





