महाराजा अग्रसेन का युगीन संदेश
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महापुरूष अपने जीवन में कुछ ऐसे आदर्शों की स्थापना करते हैं जो चिर युगीन हो जाते हैं, आने वाले युगों में राष्ट्र या समाज उनका अनुकरण कर अपने जीवन को मुदमंगलमय बनाता है, वे महापुरूष मात्र वाणी से आदर्शों की व्याख्या नहीं करते अपितु उन्हें अपने जीवन में कर्म से भी उतारते हैं। ऐसे महापुरूषों को हम मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, बुद्ध, महावीर स्वामी, चाणक्य, महात्मा गाँधी आदि के नाम से जानते हैं। ऐसे ही युगपुरूषों में महाराजा अग्रसेन का नाम अत्यन्त श्रद्धा से लिया जाता है। महाराज अग्रसेन का उद्भव द्वापर एवं कलियुग के संधिकाल में हुआ था। महाभारत के युद्ध के पश्चात् एक प्रकार से बड़े-बड़े साम्राज्यों का अन्त हो गया था। उस विनाशकारी युद्ध में जन-धन की इतनी हानि हो गई थी कि न शासन करने के लिये प्रजा ही बची थी और न प्रजा को सुखी बनाने के साधन ही। इस स्थिति का लाभ उठाकर जिसको जहाँ भी अवसर मिला राज्य स्थापित कर लिया था। पूरे देश की प्रजा इन शोषण एवं स्वैच्छाधारी राजाओं से त्रस्त थी। ऐसे ही विषमकाल में उन्होंने ‘अग्रोहा’ की स्थापना कर १८ गणराज्यों की स्थापना की थी। उनका प्रथम लक्ष्य यही था कि हमारी प्रजा सुखी रहे। भगवान राम के वंशज होने के नाते प्रजा-रंजन ही उनका प्रथम लक्ष्य था। उन्हें साम्राज्य के आदर्श ज्ञात थे। उनका दृढ़ विश्वास था किजासु राज प्रिय, प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि, नरक अधिकारी प्रथम संदेश: विश्व के शासकों या राष्ट्राध्यक्षों के नाम उनका संदेश था कि प्रजा हर प्रकार की सुख-सुविधाओं से सम्पन्न रहे। उन्होंने अपनी इसी योजना के अन्तर्गत अपने राज्य की व्यवस्था की थी। कृषि एवं गोधन की समृद्धि के लिये सिंचाई के कृत्रिम साधन-नहरें, वूप, बावड़ी एवं सरोवर बनवाए। गोधन की वृद्धि के लिये बड़ी गोचर भूमि संरक्षित की, जिसका परिणाम यह हुआ कि अग्रोहा गणराज्य धन -धान्य से पूर्ण हो गया। दूध-घृत की नदियाँ बहने लगी। प्रजा से उतना ही कर लिया जाता था जितना प्रजा के संसाधनों की वृद्धि के लिये आवश्यक होता था। आज के युग में राष्ट्रनेताओं के लिये यह प्रथम युगीन संदेश है कि जिस प्रकार आज जनता अनेकों प्रकार के करों के भार से पीड़ित है और प्रजा से प्राप्त आय का अधिकांश प्रजा रंजन के स्थान पर मंत्रियों, नेताओं आदि की सुख-सुविधा के लिये व्यय होता है। करों की दारूण भार से बचने के लिए प्रजा को भी कपट उपाय करने पड़ते हैं। कृषि प्रधान देश होते हुए भी देश की आधी जनसंख्या भूखे पेट सोती है। नेतागण हवाला व घोटाला में व्यस्त है। गाँधीजी के सपनों का आज भारत गायब हो गया है। नेताओं पर जनता का विश्वास खत्म है। एक आश्चर्यजनक अविश्वास के माहौल में सारा देश जी रहा है। ऐसे दारूण काल में महाराजा अग्रसेन का प्रजारंजन संदेश युगीन ही नहीं अपितु चिर युगीन है।
२.द्वितीय संदेश-राष्ट्र सुरक्षा
महाराजा अग्रसेन का यह संदेश आज के भारत के लिये अत्यन्त प्रासंगिक है। उन्होंने अपने समस्त प्रजाजनों के लिये सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया था। उनका कहना था कि जब राष्ट्र की सुरक्षा का दायित्व एक विशेष वर्ग (क्षत्रिय) पर ही रहता है, शेष प्रजा निष्क्रिय रहती है, विदेशी आक्रमण के समय पूरे प्रजाजनों को सैन्यवत् खड़ा हो जाना चाहिए, इसी का परिणाम यह रहा कि अग्रोहा गणराज्य लगभग २००० वर्षों तक अपराजेय रहा। सिकन्दर, मोहम्मद-बिन-कासिम एवं गोरी को भी मात्र विश्वासघातियों के कारण बड़ी कठिनाई से विजय मिल पाई थी। महाराजा अग्रसेन का यह संदेश कालान्तर में चाणक्य ने भी स्वीकार किया था। उनका संदेश था रक्षिते राष्ट्र,चर्चा विवर्तते अर्थात् जहाँ राष्ट्र की रक्षा के लिये आयुध जीवियों के तने रहते हैं वहीं की चर्चा सम्भव है आज हमारे देश ने अगर महाराजा अग्रसेन का यह संदेश हृदयंगम किया होता तो हमारी सीमाएँ भी सुरक्षित रहती और आतंकवादी यहाँ विनाश लीला नहीं कर पाते। महाराजा के इसी युगीन संदेश को इसरायल ने स्वीकार किया इसीलिए चारों ओर से मुस्लिम राष्ट्रों से घिरा होने पर भी अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा कर पाने में पूर्ण समर्थ है।
३.समाजवाद की देन:
महाराजा अग्रसेन ने तत्कालीन निरंकुश शासन सत्ता से स्थान पर शुद्ध समाजवादी गणराज्य की सर्वप्रथम स्थापना की थी उन्होंने प्रजा के हर वर्ग से योग्य प्रतिनिधियों का चयन कर उनकी एक परिषद् बनाई थी और उसी के परामर्शानुसार पूरी शासन व्यवस्था चलती थी। प्रजाजनों का शासन-संचालन में प्रत्यक्ष योगदान रहता था। प्रजा भी पूरे दायित्व के साथ राष्ट्र को अपना मान कर हृदय से सहयोग देती थी। आज हमारे यहां प्रजातंत्र तो है पर तंत्र के नाम का यह संदेश हमारे शासनकर्ता हृदय से स्वीकार करते तो आज राष्ट्र की यह दशा न होती।
४.समभाव समतावाद
यह महाराजा अग्रसेन का अपना मौलिक अवदान समाज एवं राष्ट्र के लिये रहा है, उनके गणराज्य में अमीर-गरीब एवं ऊँचनीच का कोई भेद-भाव नहीं था। पूरी प्रजा एक दूसरे के कुशल-क्षेम में हृदय से समभागी होती थी। सभी को रोजगार देने का कार्य राज्य करता था। इतना ही नहीं, उन्होंने एक नियम बनाया था – ‘एक रूपैया-एक र्इंट। जो भी नया व्यक्ति अग्रोहा में बसने आता था, उसे हर परिवार से एक रूपैया और एक र्इंट मिलती थी। उस समय अग्रोहा में लगभग एक लाख परिवार रहते थे। अत: हर आने वाले को एक लाख रूपयों के साथ, एक लाख र्इंट मिल जाती थी। इतनी र्इंटों से रहने लायक घर बन जाता और एक लाख रूपयों से वह कोई व्यवसाय प्रारम्भ कर देता था। प्रजा पर कोई भार भी नहीं पड़ता था। आज हम सबमें यह भावना नहीं है। अपनी-अपनी पड़ी है। अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और गरीब दिन प्रति दिन-हीन बनते जा रहे हैं। प्रजा को हीन भावना से ग्रस्त होने से बचाने के लिये उन्होंने दान शब्द के स्थान पर सहयोग शब्द का उपयोग करने को प्रारम्भ किया था। उन्होंने युवराज विभुसेन से स्वयं कहा थाकिसी की सहायता करनी है तो उस सहायता को दान मत कहो। उसे विनम्र सहयोग कहो। दान कहने से लेने वाले के मन में हीन भावना जन्म लेती है और देने वाला अहं से भर जाता है।