राजस्थानी लोकनाट्य
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राजस्थानी लोकनाट्य
लोक अर्थात जन-जन के कंठ पर आसीन साहित्य ही लोकसाहित्य है, इस कंठासीन साहित्य से तात्पर्य मौखिक अथवा वाचिक साहित्य से है, यह साहित्य परम्पराशील होता है और उन लोगों में व्याप्त होता है जो दिखावे से दूर सहज प्रवृत्तियों में संस्कारित होते हुए परिपाटीगत आस्था एवं विश्वासों की डोर में बंधे सामूहिक जीवन के सहयात्री होते हैं,वे समष्टिगत धर्म-कर्म तथा अध्यात्म- अनुष्ठान के जीवनचक्र से बंधी लोकमानसीय प्रज्ञा-मनीषा के महत्वपूर्ण हिस्से होते हैं, उनका व्यक्ति गौण होता है, वे समग्रत: लोक के वशीभूत होते हैं, यही कारण है कि उनमें प्रचलित गीत, नाट्य, कथा, वार्ता, प्रहसन, नृत्य, शिल्प, चितरावण सब लोक की लोकरंजित लोकमान्य रचना होती है, उसका रचनाकार समूह-व्यक्ति होते हुए भी वह गौण होता है, गौण होता रहता है, गौण होता हुआ लगता है और कभी-कभी मिथक बन कर रह जाता है। ऐसा भी होता है जब कोई रचनाकार अपने को अज्ञात एवं अनाम रखकर जो कुछ रचना वह करता है उसे लोक में पराए हाथों कर देता है, अपनी रचना को अपने नाम से चलायमान करने से लोक में उसकी पकड़ अत्यंत ढीली पड़ जाती है जबकि वही रचना बिना किसी रचनाकार की छाप के यदि लोक में प्रवाहित कर दी जाये तो उसका असर निश्चय ही दूसरे ढंग का होगा, लोक में ऐसे कई रचनाकर मिलेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं को बेहिचक अनाम रखा और उसे लोक की धरोहर होने दिया, मैं ऐसी ही एक धरोहर और राजस्थानी लोक संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विधा ‘लोकनाट्य’ के संबंध में कुछ कहना चाहता हूँ। भारत में अन्य प्रांतों की तुलना में राजस्थान की भूमि लोकनाट्यों के बड़ी अनुकूल रही है, पहाड़ी, मैदानी, पठारी, रेगिस्तानी सभी प्रकार की भूमि होने के कारण यहाँ सभी प्रकार के लोकनाट्यों की परम्पराएँ विकासमान रही हैं, लोकनाट्यों के वर्गीकरण के कई आधार हो सकते हैं, इनमें से ये आधार मुख्य हैं :
१. बोली अथवा भाषा
२. भौगोलिक स्थिति
३. रंगमंच
४. नाट्य-तत्त्व
५. पर्व एवं उत्सव
६. उद्देश
७. रंगशैली
८. शिल्प प्रक्रिया
९. अन्य आधार
इन आधारों में से केवल शिल्प प्रक्रिया के आधार पर ही लोकनाट्यों का वर्गीकरण उचित जान पड़ता है,
लोकमान्य निम्नांकित तीन रूपों में वर्गीकृत किए जा सकते हैं-
१. ख्याल २. स्वाँग ३.लीलाएं।
ख्याल: लोकनाटय का वह रूप जो परम्परागत बंधीबंधाई रंगशैली में लोकजीवन में प्रचलित आख्यानों का प्रदर्शन कर सामान्य जनता का मनोरंजन करता है, ख्याल खेल कहलाता है, ख्याल की इस परिभाषा से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं-
१. लोकनाट्य के ये परिष्कृत रूप होते हैं।
२. इनका प्रदर्शन परम्परागत बंधी-बंधाई रंगशैली में किया जाता है, रंग से तात्पर्य राग, रंगत, धनु एवं गायकी तथा शैली से तात्पर्य रूप, प्रकार, चाल, छंद-योजना व तंत्र विशेष से है।
३. इनकी विषय-सामग्री लोकजीवन में प्रचलित कथा-आख्यान होते हैं।
४. लोकजीवन का मनोरंजन करना इनका मुख्य लक्ष्य रहता है। उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि राजस्थान में ख्यालों का प्रारंभ अठराहवीं शताब्दी के प्रारंभ के लगभग हुआ और उसके बाद इनका उत्तरोत्तर विकास होता रहा, ये ख्याल निम्न प्रकार हैं:-
(१) माच के ख्याल (२) बैठकी ख्याल (३) तुर्रा कलंगी ख्याल (४) चार वैत (५) कुचामणी ख्याल (६) शेखावाटी ख्याल (७) चेड़ावी ख्याल (८) नौटंकी ख्याल (९) मेवाड़ी ख्याल (१०) अलीबक्षी ख्याल (११) किशनगढ़ी ख्याल (१२) रम्मती ख्याल (१३) जयपुरी ख्याल (१४) कठपुतली खेल (१५) दंगली ख्याल (१६) डोड़िया ख्याल (१७) हाथरसी ख्याल (१८) गंधर्वों के ख्याल (१९) नागौरी ख्याल (२०) कड़ा ख्याल (२१) अभिनयी ख्याल (२२) कथावाचनी ख्याल (२३) चौबोला ख्याल (२४) झाड़शाही ख्याल (२५) मारवाड़ी ख्याल (२६) नटों के खेल (२७) अन्य ख्याल।
सामान्य परिचय : ख्यालों की गणना मंचीय नाट्यों में की जाती है, लोकनाट्यों में की जाती है, लोकनाट्यों का यह अति आधुनिक रूप है। इसका इतिहास सत्रहवीं शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है, इस संबंध में देवीलाल सामर और
अगरचंद नाहटा के मंतव्य द्रष्टव्य हैं- (अ) सत्रहवीं शताब्दी में आगरा के निकट ख्यालों की एक लोकधर्मी परम्परा शुरू हुई जिसका दायरा केवल काव्य-रचना तथा किसी ऐतिहासिक तथा पौराणिक व्यक्ति से सम्बन्धित काव्य-रचना की प्रतियोगिता तक ही सीमित था, यही परम्परा प्रथम बार १८वीं शताब्दी में राजस्थान के रंगमंचीय ख्यालों के रूप में परिवर्तित हुई जो आज अनेक रूपों में राजस्थान के जनजीवन को आह्लादित कर रही है, यह ख्याल सर्वप्रथम कल्पना और विचारों से उत्पन्न कवित्व रचना का ही दूसरा नाम था परन्तु जब से वह रंगमंच पर खेल तमाशे का रूप धारण करने लगा, यह खेल या ख्याल कहलाया।
- जनसाधारण में जो मध्यकाल में रास, चर्चरि, फागु आदि रमे या खेले जाते थे, वे पीछे से रमत, रामत, खेल, ख्याल के रूप में प्रकटित हुए, ये ख्याल खेल, ख्याल, तमासा, सांग, स्वांग, नौटंकी, माच, रमत, रामत, रासधारी आदि के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं,
- ख्याल, खेल, तमासा आदि ख्यालों के नाम हैं। ख्यालों को खेल-तमाशे अथवा ख्याल-तमाशे भी कहते हैं, ख्याल-पुस्तकों का नामकरण भी इन्हें के आधार पर मिलता है यथा-
- ख्याल वीरमसिंह नौटंकी का (चुन्नीलाल), विक्रमराजा और चन्द्रकला का ख्याल (उजीरा तेली)
- खेल राजा केशरसिंह और रानी फुँलादे (पं.शेषदास), मूमल म्हदरे का खेल (तेज कवि) (३) ये विक्रम को नयो तमासो पीरू सोनी कथ कर गाया।
- सांग, स्वांग, संगीत, सांगीत आदि नौटंकी के विविध नाम हैं। कहीं-कहीं नौटंकी को स्वांग भी कहते हैं, यथा -त्वं पद पंकज राखि उद, करूं स्वांग प्रारम्भ दास गणेश चिरंजी तौ नौटंकी स्वांग प्रारम्भ दास गणेश चिरंजी तौ नौंटंकी स्वांग बनावैं। नौटंकी का एक नाम भगत भी मिलता है।
- मंच प्रधान ख्यालों को माच के ख्याल कहते हैं, इन ख्यालों के मंच अपनी कलात्मक आकर्षण सज्जा, विशेष मंचीय बनावट तथा अट्टालीनुमा झरोखों के लिए प्रसिद्ध हैं, राजस्थान में माच के ख्यालों में, तुर्राकलंगी के ख्याल ही अधिक प्रचालित रहे हैं।
- जैसलमेर तथा बीकानेर की ओर ख्यालों को रमत, रम्मत अथवा रामत कहते हैं।
- मेवाड़ की ओर ख्यालों को रासधारी भी कहते हैं।
- (च) ख्यालों का एक नाम टप्पा भी पढ़ने को मिलता है, प्रकाशित ख्यालपुस्तकों में इन ख्यालों के नाटिक, ब्यावला, निसानी, लीला, मासिया, लावणी, रसिया, कथा, कीर्तन, शिलोका, धमाल, बहार, चरित्र आदि नाम भी पाए जाते हैं। यथा-
- (१) नाटिका : बालासिसु विवाह नाटिक, (शिवकरण रामरतन दरक)
- (२) ब्यावला : रामदेवजी का ब्यावला, (शिवदयाल)
- (३) निसानी : नाथूलाल गोविंद को चलो नल की कहै निसानी (नानूराणा)
- (४) लीला : नानूलाल चिड़ावे वालो नललीला कथ गाई।
- (५) मासिया : ख्याल बारहमासिया
- (६) लावणी : बारह मासिया की लावणी लावणी पंचरत्न
- (७) रसिया ब्रज के रसिया रास बिहारी के रसिया
- (८) कथा : श्रीरामदेव लीलामृत कथा (लच्छीराम)
- (९) कीर्तन : श्री केला कीर्तन (बंशीलाल)
- (१०) शिलोका : तेजाजी का शिलोका (पूनमचन्द सिखवाल)
- (११) धमाल : होली की धमाल (जगदम्बालाल)
- (१२) बहार : हिंडोला बहार (जयदयालु वर्मा) (१२) बहार : हिंडोला बहार
(जयदयालु वर्मा) - (१३) चरित्र : खयाल संग्रह चरित्र (नानूराणा) मोरध्वज चरित्र मनीराम ध्रवचरित्र का ख्याल (धन्नालाल) मंच, वाद्य, कथावचन, अभिनय, समया आदि के अनुसार भी ये ख्याल विशेष सरणियों में विभक्त होते और होते-होते इनकी कई रंग-शैलियाँ बन गर्इं। यथा-
- (क) मंच के अनुसार, जैसे माच के खेल, ये प्राय: मंदिर के पास होते हैं। मन्दिर पर चढ़कर सूत्रधार स्तुतिपरक छंद गाता है जिसे अभिनेता मंच पर खड़े दुहराते हैं, इनका प्रचलन झालावाड़ की ओर खूब रहा है, ये वीर, प्रेम और भक्तिपरक होते हैं। वीररस के माच में कामरैन का राजा हमीर, प्रेम के अन्तर्गत पचफूला, आभलदे खेमजी, मूनारानी, सदावृक्ष सारंगा,ढोलामारवण, हीर रांझा तथा भक्तिरस में मोरध्वज,
प्रहलाद, रामायण, धनुषयज्ञ, गेंदलीला, नागलीला आदि के माच उल्लेखनीय हैं।
- (ख) वाद्य के अनुसार जैसे कड़ा शैली के ख्याल, यह वीररस से पूर्ण शैली है जिसमें एक व्यक्ति किसी लोककथा का गायन करता है और पूरा समूह उसकी प्रमुख पंक्तियाँ दुहराता है। टेक झेलने के लिए नगाड़ों की किड़किड़ाहट देखते ही बनती है, इसी किड़किड़ाहट से नाट्यों की यह शैली आगे जाकर कड़ा नाम धरपाई, यह नौटंकी से बिलकुल भिन्न होता है। पृथ्वीराज वीर की कथा इस शैली का प्रसिद्ध नाट्य है।
- (ग) कथवाचन में अकेला कथावाचक अनेक पात्रों की रचना करता है, यह रचना वचन, भावभंगिमा तथा मुद्राओं के विविधरूप लिए होती है। वाचन टुकड़ेटुकड़ करके होता है, इसी कथावाचन की शैली पर संवादात्मक प्रेमकथाओं और वीरगाथाओं के रूप में देवनारायण, रामदेव, ढोलामरवण, रतना रेबारी का महाभारत का मार्मिक पाठ होता है, इनमें घटना वैचित्र्य और प्रेमजन्य आवेश की बहुलता मिलती है। ढोलामरवण इनमें विशेष प्रसिद्ध है।
- (घ) अभिनय में अनेक पात्र अनेक रूपों में मंच पर उतरकर आला दर्जे का अभिनय करते हैं, अभिनयात्मक संवादों का एक अलग प्रकार और है, इसके संवाद नौटंकी के आधार पर होते हैं, इनमें तेजाजाट, डूंगजी जुवारजी, गोपीचन्द-भरथरी आदि विशेष प्रचलित हैं।
- (ङ) समया नाटकीय परम्परा रामलीला से मिलती जुलती होती है, इसमें वाद्य, गीत और नृत्य का तीव्र उफान देखने को मिलता है। स्थान विशेष के अनुसार भी इन ख्यालों ने नामकरण पाया और किसी क्षेत्र विशेष के ख्याल उसी के नाम-विशेष से पुकारे जाने लगे। यथा-
- (क) स्थान-विशेष के अनुसार, जैसे किशनगढ़ के किशनगढ़ी रंगत के ख्याल, इस तरह मारवाड़ी तथा मेवाड़ी ख्याल, यहां तक कि ख्याल-लेखकों की लोकप्रियता के साथ-साथ उनके द्वारा उचे जाने वाले ख्याल भी उन्हीं के नाम से चलने लगे। यथा-अलीबक्ष द्वारा लिखित अलीबक्षी ख्याल अलवर की ओर विशेष प्रचलित रहे हैं, उनके नाम पर तो ख्यालों की एक रंगत ही चल पड़ी जो अलीबक्षी रंगत के नाम से लोकप्रिय हुई, अन्य ख्याल-लेखकों ने भी इस रंगत में अपने ख्याल लिखे, इस प्रकार ख्यालों की यह चलत कई रंगशैलियों में प्रकटित हुई। शैली, रंगत, बहर, गायकी, छाप-पट्टी, बनावट, बणगट तथा चाल के अनुरूप यहाँ के ख्याल कई रूपों में देखे, सुने और समझे जाने लगे।
- विषयवस्तु : विषयवस्तु की दृष्टि से इन ख्यालों को चार भागों में बांटा जा सकता है- (१) ऐतिहासिक (२) शृंगारिक (३) सामाजिक (४) धार्मिक
- ऐतिहासिक ख्याल : ख्यालों का विषय लोकजीवन के ऐतिहासिक धरातल पर पूर्णतया कसा हुआ होता है, इनके नायक वीर, पराक्रमी, साहसी, दृढ़वती तथा शुभचिन्तक होते हैं, वे समाज को अपने साथ लेकर चलते हैं और वक्त आने पर समाज के लिए अपने आप को खपा देते हैं, उनका व्यक्तित्व विराट, व्यवहार,
निश्छल, आदर्श अनुकरणीय और कार्य चमत्कारिक होते हैं, यही कारण है कि लोक-गाथाओं में वर्णित नायक ऐसे ख्यालों के सर्वाधिक प्रिय विषय बन जाते हैं, इनमें राजा विक्रमादित्य, अमरसिंह राठौड़, गोगाजी चौहान, पाबूजी, देवनारायणजी, तेजाजी, रामदेवजी, डूंगजी जुहारजी, बलजी, दूला धाड़वी, दयाराम धाड़वी आदि के ख्याल विशेष उल्लेखनीय है। - श्रृंगारिक ख्याल : लोकजीवन में जो प्रेमाख्यान लोकप्रिय रहे हैं, उन्हीं को आधार मानकर श्रृंगारिक ख्यालों की रचना प्रारम्भ हुई, इनमें प्रेमी-प्रेमिकाओं की जिन्दादिली अपने जीवंत-ध्येय के साथ अपना मार्ग प्रशस्त करती रहती है। एक दूसरे को पाने की बलवती जिज्ञासाएँ दृढ़तर होती हुई देखी जाती हैं। कठिन से कठिन घड़ियों में भी वे अपने सात्विक पे्रम की दीपशिखा प्रज्वलित किए निरन्तर गतिमान होते रहते हैं और अंत में उनका ध्येय, उनकी लगन, उनका विश्वास, उनका साहस और उनकी साधना सफलीभूत होती हुई नजर आती है। सामाजिक ख्याल : इन ख्यालों में समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुप्रथाओं तथा उनसे उत्पन्न दुष्परिणामों का खुला चिट्ठा वर्णित रहता है, अनमेल विवाह, नाजायज रिश्ते-नाते, नशाखोरी, जादू-टोने आदि इन ख्यालों के मुख्य विषय हैं, इनमें भरपूर हास्य के साथ तीखा व्यंग्य छिपा रहता है जो दिल पर सीधी चोट करता है, कुछ ख्याल ऐसे भी लिखे गए हैं जो केवल कामवासनाओं को बढ़ावा देकर हल्के दर्जे का मनोरंजन करते हैं, ऐसे ख्यालों में मस्तपरी का ख्याल द्रष्टव्य है। समाजिक ख्यालों में बाला सिसु विवाह नाटिक, मस्तपरी, नने खशम, काकी जेठूत, खटपटिया, छोटाबालम, नशाबाज आदि बहुचर्चित ख्याल हैं।
- धार्मिक ख्याल : इन ख्यालों की आत्मा, लोकजीवन में व्याप्त वे धार्मिक प्रसंग होते हैं जिनके प्रति लोगों की अपार श्रद्धा एवं भक्ति निहित रहती है। भक्ति, दान, शील, तप, धर्म, त्याग आदि के कारण समाज जिनके आदर्शों का अनुकरण करता है, उन्हीं उच्चात्माओं की जीवन लीलाओं को लेकर इन ख्यालों का प्रणयन होता है। जनजीवन में ये ही ख्याल विशेष स्वीकारे जाते हैं और यही कारण है कि इनके प्रदर्शन सर्वाधिक रूप में देखने को मिलते हैं, इनमें रुकमणी मंगल, भक्त पूरणमल, राजा हरिश्चन्द्र, सती हेमवुंâवर, नल-दमयंती, भक्त-सुदामा, भरतरी पिंगला, द्रोपदी स्वयंवर, नरसी मेहता, चंदमिलयागिरी, आनन्द गणपति, मीरां मंगल, गोपीचन्द आदि ख्याल उलेख्य हैं।
- स्वाँग : दूसरे का रूप धारण करने के लिए जो वेश धारण किया जाता है, उसे स्वाँग कहते हैं, दूसरे शब्दों में रूप धारण करने की वह क्रिया जो किसी रूप को अपने में आरोपित कर उसका प्रतिरूप प्रस्तुत करती है, स्वाँग कहलाती है, इन स्वाँगों के अनुकरण के रूप में मूल की प्रतिच्छाया रहती है। अनुकरणकर्ता विवेकपूर्ण वेश परिवर्तन करके अपने खेल-तमाशे इस ढंग से प्रदर्शित करता है कि कभी-कभी मूल और अनुकरण का भेद करना भी कठिन हो जाता है। धोखा देने के लिए ढोंग अथवा आडम्बर के रूप में जो वेश परिवर्तन किया जाता है, वह भी स्वाँग ही कहलाता है। राजस्थान में मुख्य रूप से निम्नांकित स्वांग प्रचलित हैं-
- (१) ख्याल-झामटड़े
- (२) टूंटिया-टूंटकी
- (३) उदयपुर के स्वाँग
- ४) शेखावाटी का गींदड
- (५) बसी की जमराबीज का स्वाँग
- (६) सांगोद का न्हाणा
- (७) ब्यावर की बादशाह की सवारी
- (८) मांडल का नारों का स्वाँग
- (९) चौक च्यानणी
- (१०) बहुरूपियों के स्वाँग
- (११) कच्छीघोड़ी के प्रदशन
- (१२) भवाइयों की कलाबाजियाँ
- (१३) कादरा भूतरा
- (१४) ईलोजी के स्वांग। इन स्वाँगों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है-
- (अ) ब्याह-शादियों के प्रहसन :
- (१) ख्याल-झामटड़े
- (२) टूंटिया-टूंटकी (ब) त्योहार-उत्सवोें के अनुरंजन :
- (१) उदयपुर के स्वांग
- (२) बसी के स्वांग
- (३) शेखावाटी का गींदड़
- (४) सांगोद का न्हाण
- (५) बादशाह की सवारी
- (६) नारों का स्वाँग
- (७) चौक च्यानणी
- (८) कादरा भूतरा
- (९) ईलोजी के स्वाँग।
- (स) पेशेवर लोगोें द्वारा आयोजित भांड भड़ैती :
- (१) बहुरूपियों के स्वाँग
- (२) कच्छी घोड़ियों के प्रदर्शन
- (३) भवाइयों की कलाबाजियाँ। (क्रमश:)