श्री विश्वकर्मा भगवान
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हम अपने प्राचीन ग्रंथों उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित हैं।
भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कार्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है। कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है। भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति कर उन्हें प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा ८४ लाख योनियों को उत्पन्न किया। श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हें जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भरण-पोषण का कार्य सौंप दिया। प्रजा का ठीक सुचारु रुप से पालन हम अपने प्राचीन ग्रंथों उपनिषद एव पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित हैं। भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कार्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है।
कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है।
भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति कर उन्हें प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा ८४ लाख योनियों को उत्पन्न किया।
श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हें जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भरण-पोषण का कार्य सौंप दिया। प्रजा का ठीक सुचारु रुप से पालन और हुकुमत करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान किया।
बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर भगवान की उत्पत्ति की, उन्हें डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर, उन्हें प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया। यथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी, राग-रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देवों को सुशोभित किया।
हमारे धर्मशास्त्रों और ग्रंथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन प्राप्त होता है।
विरा: विश्वकर्मा – सृष्टि के रचेता
धर्मवंशी विश्वकर्मा – महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र
अंगिरावंशी विश्वकर्मा – आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र
सुधन्वा विश्वकर्मा – महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋषि अथर्वा के पुत्र
भृंगुवंशी विश्वकर्मा – उत्कृष्ठ शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र )
देवगुरु बृहस्पति की भगिनी भुवना के पुत्र भौवन विश्वकर्मा की वंश परम्परा अत्यंत वृध्द है। सृष्टि के वृध्दि करने हेतु भगवान पंचमुख विश्वकर्मा के सघोजात नामवाले पूर्व मुख से सामना, दूसरे वामदेव नामक दक्षिण मुख से सनातन, अघोर नामक पश्चिम मुख से अहिंमून, चौथे तत्पुरुष नामवाले उत्तर मुख से प्रत्न और पाँचवें ईशान नामक मध्य भागवाले मुख से सुपर्ण की उत्पत्ति शास्त्रों में वर्णित है, इन्हीं सानग, सनातन, अहमन, प्रत्न और सुपर्ण नामक पाँच गोत्र प्रवर्तक ऋषियों से प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस सन्तानें उत्पन्न हुई, जिससे विशाल विश्वकर्मा समाज का विस्तार हुआ, शिल्पशास्त्रों के प्रणेता बने स्वयं भगवान विश्वकर्मा जो ऋषि रुप में उपरोक्त सभी ज्ञानों का भण्डार है, शिल्पो के आचार्य शिल्पी प्रजापति ने पदार्थ के आधार पर शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख धाराओं में विभाजित करते हुए तथा मानव समाज को इनके ज्ञान से लाभान्वित करने के निर्मित पाँच प्रमुख शिल्पाचार्य पुत्र को उत्पन्न किया जो अयस, काष, ताम्र, शिला एवं हिरण्य शिल्प के अधिष्ठाता मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी एवं दैवज्ञा के रुप में जाने गये, ये सभी ऋषि वेदों में पारंगत हुए। कन्दपुराण के नागर खण्ड में भगवान विश्वकर्मा के वंशजों की चर्चा की गई है। ब्रम्ह स्वरुप विरा: श्री.विश्वकर्मा पंचमुख हैं, उनके पाँच मुख हैं जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों के मंत्रों व्दारा उत्पन्न किये गए है, उनके नाम हैं– मनु, मय, त्वषा, शिल्पी और देवज्ञ।
ऋषि मनु विश्वकर्मा– ये ठसानग गोत्र के कहे जाते हैं, ये लोहे के कर्म के उध्दगाता हैं, इनके वंशज लोहकार के रुप में जाने जाते हैं।
सनातन ऋषि मय– ये सनातन गोत्र के कहे जाते हैं, ये बढई कर्म के उद्धगाता हैं, इनके वंशज काष्ठकार के रुप में जाने जाते हैं।
अहभून ऋषि– इनका दूसरा नाम त्वष्ठा है जिनका गोत्र अहंभन है, हम अपने प्राचीन ग्रंथों उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित हैं। भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कार्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है। कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है। भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति कर उन्हें प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा ८४ लाख योनियों को उत्पन्न किया। श्री विष्णु भगवान ने जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भरण-पोषण का कार्य सौंप दिया। प्रजा का ठीक सुचारु रुप से पालन और हुकुमत करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान किया, बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर भगवान की उत्पत्ति की, उन्हें डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर, उन्हें प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया, कथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी, राग-रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देवों को सुशोभित किया।
देवौ सौ सूत्रधार: जगदखिल हित: ध्यायते सर्वसत्वै वास्तु के १८ उपदेषाओं में विश्वकर्मा को प्रमुख माना गया है, उत्तर ही नहीं, दक्षिण भारत में भी, जहां मय के ग्रंथों की स्वीकृति रही है, विश्वकर्मा के मतों को सहज रूप में लोकमान्यता प्राप्त है, वराहमिहिर ने भी कई स्थानों पर विश्वकर्मा के मतों को उद्धृत किया है।
विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देवबढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है, यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं, स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का प्रमुख कहा गया है, कहा जाता है कि वे शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे।
सूर्य की मानव जीवन संहारक रश्मियों का संहार भी विश्वकर्मा ने ही किया, राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में उनका जिक्र मिलता है, यह जिक्र अन्य ग्रंथों में भी मिलता है, विश्वकर्मा कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक हैं, हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकु: और वृद्धकाय हैं—
कंबासूत्राम्बुपात्रं वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम।
हंसारूढ़स्विनेत्रं शुभमुकु: शिर: सर्वतो वृद्धकाय:
उनका अषगंधादि से पूजन लाभदायक है।
विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं, विश्वकर्मीय ग्रंथ बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है। विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है, इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं, मेवाड़ में लिखे गए अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों में दिए गए हैं, संयोग से यह ग्रंथ २३९ सूत्रों तक ही मिल पाया है, इस ग्रंथ से यह भी पता चलता है कि विश्वकर्मा ने अपने तीन अन्य पुत्रों जय, विजय और सिद्धार्थ को भी ज्ञान दिया है।
भगवान श्री राम और श्री विश्वकर्मा जी
इतिहास साक्षी है वाल्मीकि रामायण के लंका कांड, सर्ग १२५ श्लोक २० के अनुसार भगवान राम ने भी विश्वकर्मा जी की अराधना एवं पूजा की, यह बात स्वयं श्री राम ने अपने मुख से कही, जिस समय लंका पर विजय प्राप्त कर के विमान में सीता सहित श्री राम अयोध्या आ रहे थे तो सीता से कहा कि हे सीता! जब हम तुम्हारे वियोग में व्याकुल होकर वन-वन घूम रहे थे तो समुद्र तट स्थान पर चातुर्मास किया था और विश्वकर्मा प्रभु की पूजा भी करते थे, उसी विश्वकर्मा की कृपा से हमने यह सेतु बांधकर लंका में प्रवेश किया और रावण का वध किया, यहां महाप्रभु विश्वकर्मा को ही महादेव कहा गया है। संत शिरोमणी तुलसी के रामचरितमानस में भी श्री राम ने विश्वकर्मा के पुत्रों नल और नील की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और उनके प्रति अपना आभार प्रकट किया। द्वापर युग में महादेव और द्वारकावासी श्री कृष्ण ने पांचों पुत्रों सहित विश्वकर्मा की पूजा की। कलियुग में भी विश्वकर्मा वंशीयों देवऋषि अर्थात शिल्पी ब्राह्मणों के महाजन जनमेजय ने अपनी यज्ञ में यथोक्त पूजा की है, सारांश यह है कि शिल्पी ब्राह्मण सर्वदा से ही सबके पूज्य रहे हैं, अत: यह पूर्णरूपेण स्पष्ट है कि देवाधिदेव विश्वकर्मा जी समस्त शास्त्रों के ज्ञान, वेद वेदांग में पारंगत, तप और स्वाध्याय के प्रेमी, इंद्रियों को जीते हुए, क्षमाशील ब्राह्मण कुमार थे, स्वयं भगवान होते हुए भी वे भगवान की अराधना करते थे, वे सर्वव्यापी, समर्थ और सर्व शक्तिमान थे। संसार की प्रत्येक वस्तु पर उनका पूर्ण अधिकार था, परंतु किसी भी वस्तु में उनकी आसक्ति, ममता, स्पृहा और कामना नहीं थी, समय-समय पर उन्होंने सभी देवी-देवताओं की सहायता की, अमोध, अस्त्र, शस्त्र, आयुव प्रदान किये, ऐश्वर्य के साधन उपलब्ध कराए, संसार का लालन-पालन किया। महान, शूरवीर, धीर, दयालु उदार, त्यागशील, निष्पाप, चतुर, दृढ़ प्रतिज्ञ, सत्य प्रिय, बुद्धिमान विद्वान, जितेन्द्रीय और ज्ञानी थे। देवता, गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, मनुष्य और नागों में कोई भी ऐसा नहीं जो उनकी कला का सामना कर सके। बल, वीर्य, तेज, शीघ्रता, लघुडस्तता, विशाद-हीनता और धैर्य, ये सारे गुण सिवाय विश्वकर्मा जी के और किसी में विद्यमान नहीं थे।
विश्वकर्मा संतति
जिस प्रकार विश्वकर्मा भगवान के अस्तित्व, समय, काल, जन्म, शिक्षा आदि विषयों को लेखकों ने जटिल एवं अस्पष्ट बना दिया है, ऐसे ही विश्वकर्मा जी की संतान के संबंध में विद्वानों के अलग-अलग मत है। विश्वकर्मा जी की संतान के संबंध में जिन प्रश्नों को जानने की जिज्ञासा साधारण व्यक्ति के मन में उत्पन्न होती है, वे कुछ इस प्रकार हैं, जैसे विश्वकर्मा के कितने पुत्र थे, उनकी शिक्षा कैसे और कहां हुई, उन्होंने जीवन में क्या-क्या उपलब्धियाँ प्राप्त की, उनके शादी-विवाह कौन-कौन से परिवार में हुए, समाज में उनकी क्या प्रतिष्ठा रही होगी, वे क्या-क्या काम करते थे, आदि बहुत से प्रश्न हैं, जिनकी आज का प्रबुद्ध व्यक्ति जानकारी प्राप्त करना चाहेगा, आज के युग में कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति किसी के कुल और जाति की जानकारी बाद में चाहता है, पहले इस बात को जानना चाहेगा कि अमुक व्यक्ति ने संसार में आकर क्या प्राप्त किया और इस संसार को क्या दिया, अंतत: भ्रम पैदा करने वाले प्रश्नों को छोड़कर हम उपर्युक्त प्रश्नों की ओर अधिक ध्यान देंगे।
स्कन्द पुराण में लिखा है कि विश्वकर्मा जी के पांच पुत्र थे, जिनके नाम मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी तथा दैवेज्ञ थे। विश्वकर्मा जी के पांचों पुत्र सृष्टि के प्रवर्तक थे, विश्वकर्मा जी के उपर्युक्त पाचों पुत्रों का नीचे अलग-अलग विवरण दिया जा रहा है।
विश्वकर्मा जी के पाचों पुत्र पिता समान प्रत्येक क्षेत्र में पारंगत एवं प्रवीण थे। तप, त्याग, तपस्या के कारण ही इनको महर्षि की उपाधि प्राप्त थी। महाप्रभु विश्वकर्मा ने अपने सद्योत्जातादि पंच मुखों से मनु आदि पांच देवों को उत्पन्न किया, इनके पांच पुत्र थे मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवेज्ञ, दैवेज्ञ को विश्वज्ञ भी कहते हैं।
श्री विश्वकर्मा चरित्र दर्पण
आदिकाल में भगवान विश्वकर्मा ने अपनी निजी शक्ति के द्वारा वैज्ञानिक वरदान देकर मानव को जीवन कला सिखाई थी, आज मानव भगवान विश्वकर्मा के बताये हुये मार्ग से भटक गया है, भौतिकवाद के इस युग में भगवान विश्वकर्मा की पूजा अर्चना व भक्ति करना नितान्त आवश्यक इसलिए है कि विज्ञान के युग में दुर्घटना व मानसिक अशान्ति से मुक्ति प्राप्त केवल मात्र भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाने से ही सम्भव है, मस्तिष्क व मशीन का तादात्मय रहने से ही भौतिक व आध्यात्मिक प्रगति हो सकती है, इसलिये दोनों तत्वों की संचालन शक्ति भगवान विश्वकर्मा के आधीन है।
स्वचलित परमाणु संयंत्र विमान व अन्य मोटर गाड़ी व रेलों की दुर्घटना का कारण एक ही है कि मानव सूर्य आदि सौर नक्षत्रों की गति नियमित व संचालित करने वाली समस्त ब्रह्माण्ड पर नियंत्रित रखने वाली अजस्त्र शक्ति भगवान विश्वकर्मा से विमुख होकर अपने द्वारा गढे हुए बहुभगवानों की पूजा व अन्य विश्वास के जाल में जकड़कर रह गया है तथा भौतिकवाद की छाया का शिकार हो गया है, अत: मानव के भौतिक व आध्यात्मिक सुख साधन व विकास के लिये प्रजापति विश्व ब्रह्माण्ड के नियंत्रक व संचालक भगवान विश्वकर्मा की आराधना व पूजा पाठ करने के लिये मानव मात्र के स्वान्त सुख हेतु भगवान विश्वकर्मा की चरित्र लिला का दोहे व चौपाइयों के माध्यम से सुन्दर विश्वकर्मा का चरित्र दर्पण हुआ है, कलयुग में मानव जब तक विज्ञान शक्ति के प्रतीक भगवान विश्वकर्मा के चरणों में बैठकर तप व साधना नहीं करेगें तो परमाणु बमों के विस्फोट का व परमाणु रिएक्टरों की दुर्घटना से विकिरण का भयंकर खतरा हमेशा बना रहेगा, क्योंकि मानव अपने द्वारा निर्मित कल्पित भगवानों की व रात्री जागरण करके विश्व की अजस्त्र शक्ति विश्वकर्मा का उपहास करके निन्दित कर्म करके समस्त वातावरण को कलुषित कर रहा है। भगवान विश्वकर्मा ही ऐसी शक्ति है जो कि विज्ञान के इस भयंकर युग में मानव को सर्वनाश होने से रक्षा कर सकती है।
वेदों में इस विश्व की रचना व सृजन करने वाली आद्य शक्ति को भगवान के नाम से पुकारा गया, विश्वकर्मा शब्दों से बना है, पहले हम विश् शब्द की निष्पत्ति करते हैं, विश् धातु से विश्व शब्द सिद्ध होता है।
विशानि प्रविषानि सर्वाणि आकाशादीनि भूतानि यो, वाएएकाशादिषू
सर्वेषु भूतेषु प्रविष स वा विश्व कृत्स्न कर्म स विश्वकर्मा ईश्वर।।
यहां तक ही नहीं ऋग्वेद मण्डल १० अध्याय ८१ मंत्र प्रथम में विश्वकर्मा के विषय में स्पष्ट रुप से आद्यशक्ति कोई काल्पनिक नहीं है जबकि भारत में तो असंख्य काल्पनिक भगवानों की भरमार है, विश्वकर्मा शब्द वैदिक है और यास्क मुनि ने अपने निरुक्त और निघनु वेदार्थ में विश्वकर्मा शब्द की निष्पत्ति व निरुपण करते हुए यूं कहा है कि आत्मा त्वषा प्रजापति आदित्य वाक् प्राण आदि विश्वकर्मा के ही वाचक हैं, शतपथ ब्राह्मण में वाक् वै विश्वकर्मा, मंत्र वै विश्वकर्मा, शब्द वै विश्वकर्मा, छंद वै विश्वकर्मा अर्थात वाक्य, छंद, प्राण, शब्द को ही विश्वकर्मा कहते हैं, इसी बात को बाईबिल भी हमारी पुष्टि करते हुये कहती है कि आदि में शब्द या शब्द परमेश्वर था, शब्द परमेश्वर है, इसी बात की पुष्टी, गुरु वाणी में विश्व के महान अवतार गुरुनानक देव के शब्दों में होती है, शब्द ही धरती, शब्द ही आकाश, शब्द भयो प्रकाश।
सगली सृष्टि शब्द के पाछे, कह नानक शब्द घ: घ: आछे।।
जब तक मानव को सत्य का बोध नहीं होता तो दुखों से मुक्ति प्राप्त
नहीं कर सकता।
अत: आज मानव केवल मात्र इन्द्रियसुखों की प्राप्ति के लिये दिन-रात प्रयास में लगा हुआ है, परंतु फिर भी इन प्रयासों का परिणाम सुखमय न हो, दु:खों से ग्रस्त होता जा रहा है, इसी कारण समस्त विश्व आज भयंकर विनाश के कगार पर खड़ा है, आज अशान्ति की प्रचण्ड ज्वालाओं में झूलस कर त्राहि-त्राहि मचा रहा है, संसार के समणीक प्रदार्थों की प्राप्ति होने पर भी दु:खों का भार बढता जा रहा है, उसका केवल एक ही कारण है, भगवान विश्वकर्मा से विमुख होना, यदि मनुष्य को भौतिक विज्ञान व अध्यात्मिक कल्पित विज्ञान का स्वामी विश्वकर्मा है तो एक दिन मानव कल्पित भगवानों की मृग तृष्णा से मुक्ति पाकर ऋग्वेद की (१-१०५-८) की इसी ऋचा का सार्थक प्रयोग करते हुए निरर्थक काल्पनिक भगवानों की गिरफ्त से मुक्ति पा सकता है। वेद मंत्र यू हैं:-
संमा तपन्त्यभित: सपत्नीरिव पर्शव:।
मुषो न शिशना व्यदन्ति माल्य:।।
अर्थात कल्पित भगवान के पुजा-पाठ में फंस कर दु:खी मनुष्य विश्वकर्मा भगवान से प्रार्थना करते हुए कहेगा कि मैं आधियों व व्याधियों के जटिल चंगुल में फंस गया हूँ जैसे अनेक सौतेली स्त्रियाँ पति को सन्तप्त करती रहती हैं और स्वार्थ पूर्ण तृष्णायें के साथ जी रही हैं अर्थात् ये इन सभी समस्याओं का समाधान विश्वकर्मा भक्ति में ही निहित है।
- रामरतन जांगिड, पानीपत
श्री विश्वकर्मा भगवान की प्रात:कालीन स्तुति
श्री विश्वकर्मा जयंती
कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थी, प्राय:सभी विश्वकर्मा की ही बनाई हुई कही जाती हैं, यहां तक कि सतयुग का ‘स्वर्ग लोक’, त्रेता युग की ‘लंका’, द्वापर की ‘द्वारिका’ और कलयुग का ‘हस्तिनापुर’ आदि विश्वकर्मा द्वारा ही रचित हैं। ‘सुदामापुरी’ की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे, इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है।
एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम ‘नारायण’ अर्थात साक्षात विष्णु भगवान जलार्णव (क्षीर सागर) में शेषशय्या पर आविर्भूत हुए, उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र ‘धर्म’ तथा धर्म के पुत्र ‘वास्तुदेव’ हुए, कहा जाता है कि धर्म की ‘वस्तु’ नामक ध्स्त्री (जो दक्ष की कन्याओं में एक थी) से उत्पन्न ‘वास्तु’ सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे, उन्हीं वास्तुदेव की ‘अंगिरसी’ नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए, पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने।
भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु, चार बाहु एवं दश बाहु तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख, उनके मनु, मय, त्वषा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं, यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया, इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वषा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईं: और दैवज्ञ सोने-चांदी से जोड़ा जाता है। भगवान विश्वकर्मा की महत्ता स्थापित करने वाली एक कथा भी है, जिसके अनुसार वाराणसी में धार्मिक व्यवहार से चलने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था, अपने कार्य में निपुण था, परंतु स्थान-स्थान पर घूम-घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं प्राप्त कर पाता था, पति की तरह पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी, पुत्र प्राप्ति के लिए वे साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा उसकी पूरी न हो सकी, तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा कि तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य को सुनो, इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे, उत्तर भारत में इस पूजा का काफी महत्व है।
पूजन विधि: भगवान विश्वकर्मा की पूजा और यज्ञ विशेष विधि-विधान से होता है, इसकी विधि यह है कि यज्ञकर्ता स्नानादि-नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पत्नी सहित पूजास्थान में बैठे, इसके बाद विष्णु भगवान का ध्यान करें, तत्पश्चात् हाथ में पुष्प, अक्षत लेकर- ओम आधार शक्तये नम: और ओम् कूमयि नम: ओम् अनन्तम नम:, पृथिव्यै नम: ऐसा कह कर चारों ओर अक्षत छिड़कें और पीली सरसों लेकर दिग्बंधन करे, अपने को रक्षासूत्र बांधे एवं पत्नी को भी बांधें, पुष्प जलपात्र में छोड़ें इसके बाद हृदय में भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करें। रक्षादीप जलाये, जलद्रव्य के साथ पुष्प एवं सुपारी लेकर संकल्प करें, शुद्ध भूमि पर अष्टदल कमल बनाएं, उस स्थान पर सप्त धान्य रखें, उस पर मिट्टी और तांबे का जल डालें, इसके बाद पंचपल्लव, सप्त मृन्तिका, सुपारी, दक्षिणा कलश में डालकर कपड़े से कलश का आच्छादन करें, चावल से भरा पात्र समर्पित कर ऊपर विश्वकर्मा बाबा की मूर्ति स्थापित करें और वरुण देव का आह्वान करें, पुष्प चढ़ाकर कहना चाहिएहे विश्वकर्मा जी, इस मूर्ति में विराजिए और मेरी पूजा स्वीकार कीजिए, इस प्रकार पूजन के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि की पूजा कर हवन यज्ञ करें।