जालोर जिले की विशेषताएं

जालोर ग्रेनाइट उद्योग पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, जालोर, बाडमेर, पाली तथा सिरोही जिलों में ग्रेनाइट उद्योग अत्यन्त विकसित अवस्था में है, जिनमें ‘जालोर’ जिला सबसे आगे है, इस पत्थर की आयल्स बनाने का काम सबसे पहले यहीं आरम्भ हुआ। भारत सरकार के भू सर्वेक्षण विभाग की एक रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद राजस्थान सरकार का ध्यान इस ओर गया, इस रिपोर्ट में ग्रेनाइट पत्थर के क्षेत्रों को दर्शाया गया था। वर्ष १९६५ में राजस्थान सरकार ने खान एवं भू विभाग के माध्यम से एक ग्रेनाइट इकाई ‘जालोर’ में स्थापित की, जिसमें समस्त काम हाथ से होता था। वर्ष १९७१ में इसे राजस्थान उद्योग एवं खनिज विकास निगम के अन्तर्गत लाया गया, इस संस्थान की प्रगति देखकर ही हजनी क्षेत्र इस ओर आकर्षित हुआ, इसके परिणामस्वरूप वर्ष १९८७ में ग्रेनाइट उद्योग निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया। आज ‘जालोर’ जिले में ग्रेनाइट की ६०-७० खानें कार्यरत है, लगभग हर खान से निकलने वाला पत्थर अलग रंग तथा मजबूती लिए होता है, इनमें जालोर, नून, लेटा, पीजोपुरा, रानीवाड़ा, तवाब, खाम्बी, धवला, मेटाला नब्बी की खानों का पत्थर अधिक लोकप्रिय है। पीलोपुरा खान का पत्थर सबसे मंहगा है जबकि दूसरे नम्बर पर गढ़ सिवाना आता है। ग्रेनाइट का भाव ४० रुपये प्रति वर्ग फुट से लेकर १५० रुपये प्रति वर्ग फुट तक होता है। ‘जालोर’ जिला मुख्यालय की ४० किलोमीटर की परिधि में लगभग सभी रंग के ग्रेनाइट चट्टानें उपलब्ध हैं, फिर भी काला रंग दक्षिण से ही प्राप्त होता है। वहां से इसके ब्लॉक्स लाकर जालोर में इनके कटिंग, पॉलिशिंग का कार्य किया जाता है। जालोर जूती उद्योग जिले की भीनमाल पंचायत समिति द्वारा जूती उद्योग काफी विकसित हुआ है। यहां की जूतियां राज्य से बाहर निर्यात की जाती हैं, जिनसे अच्छी खासी आमदनी यहां के कारीगरों को प्राप्त होती है। खेसला उद्योग जिला मुख्यालय के निकट स्थित लेटा ग्राम में हथकरघा आधारित ‘खेसला उद्योग’ काफी उन्नत अवस्था में है। यहां के स्थानीय कारीगर बड़ी सफाई से पक्के रंगों वाली सूती खेस बनाते हैं, जिन्हें बाजार में अच्छी कीमत प्राप्त होती है। जालोर सांचोर का पशु मेला संवाड़ियां पशु मेले के समय ही सांचोर में भी पशु मेला प्रारम्भ हो जाता है। मेले का आयोजन पंचायत समिति सांचोर द्वारा किया जाता है। यह पशु मेला राज्य स्तर का मेला है जिसमें समीपवर्ती प्रान्तों से भारी संख्या में पशु एवं व्यापारी भाग लेते हैं। मेले में पहुंचने के लिए रानीवाड़ा तक रेलमार्ग एवं रानीवाड़ा से सांचोर तक ४७ किलोमीटर सड़क मार्ग की दूरी तय करनी पड़ती है। इस मेले में प्रतिवर्ष विभिन्न इकाइयों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम, फिल्म प्रदर्शन, आकर्षक प्रदर्शनी आदि का आयोजन किया जाता है। जालोर सेवाड़ियां पशु मेला रानीवाड़ा रेलवे स्टेशन से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर आयोजित होने वाले इस पशु मेले में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में कांकरेज नस्ल के बैल एवं मुर्रा नस्ल के भैंसों का क्रय-विक्रय होता है। यह मेला चैत्र शुक्ला एकादशी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक चलता है, जिसमें राजस्थान के अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा एवं गुजरात आदि राज्यों से व्यापारी आते हैं। जालोर हस्तकला जिले में मिट्टी व लकड़ी के खिलौने बनाने की कला अपनी विकसित अवस्था में है। हरजी गांव में बने मिट्टी के सवार सहित घोड़े ‘मामाजी के घोड़े’ कहलाते हैं। ये लोक देवता के रुप में एक खुले चबूतरे पर स्थापित कर पूने जाते हैं, इसी प्रकार लकड़ी खिलौनों में विविध प्राचीन एवं नवीन अनुकृतियां बनाई जाती हैं, जिनका निर्यात होता है। लकड़ी के खिलौने बनाने वाले कारीगरों की माली हालत अच्छी है। जालोर सिरे मंदिर जालोर दुर्ग की निकटवर्ती पहाड़ियों में स्थित सिरे मंदिर नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध जालन्धर नाथ की तपोभूमि है। वर्तमान मंदिर का निर्माण मारवाड़ रियासत के तत्कालीन शासक राजा मानसिंह ने करवाया था। विपत्ति के दिनों में उन्होंने यहां शरण प्राप्त की थी। यहां रत्नेश्वर महादेव, झालरा, जलकूप, भंवर गुफा, तालाब, भव्य हस्ति प्रतिमा, मंदिर का अभेद्या परकोटा, जनाना व मर्दान महल, भुल-भुलैया, चन्दर कूप आदि बड़े दर्शनीय एवं आकर्षक स्थल हैं। जालोर सेवाड़ा मंदिर रानीवाड़ा-सांचोर मार्ग पर अत्यन्त प्राचीन शिव मंदिर आज जीर्णशीर्ण अवस्था में है। शिल्पकला एवं कारीगरी में इसे भारत के किसी भी मंदिर के समकक्ष रखा जा सकता है, मंदिर को सर्वप्रथम खिलजी शासक ने दिल्ली से गुजरात जाते समय तोड़ा था, बाद में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया। तेरहवीं शताब्दी में कराए गए जीर्णोद्धार का शिलालेख मंदिर में आज भी उपलब्ध है। बाद में पालनपुर के नवाब द्वारा भी इस पर आक्रमण कर इसे तोड़ा गया। आज यह ऊपर से लगभग आधा उतारा हुआ प्रतीत होता है। मंदिर के चारों ओर कलात्मक खुदाई वाले प्रस्तर खण्ड बिखरे हुए हैं। जालोर सुन्धा मन्दिर अरावली पर्वत श्रृंखला में १२२० मीटर की ऊंचाई के सुन्धा पर्वत पर चामुण्डा देवी का प्रख्यात मन्दिर ‘जालोर’ जिले का प्रमुख धार्मिक स्थल है। राजस्थान एवं गुजरात से लाखों यात्री प्रतिवर्ष इस मन्दिर में दर्शनार्थ आते हैं। यहां का वातावरण अत्यन्त रमणीय है। वर्ष भर झरना बहता है जिससे प्राकृतिक वनावलि की छटा देखते ही बनती है। कलात्मक ढंग से अंकित की गई विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां एवं मण्डप की कलाकृतियां पर्यटकों को ‘देलवाड़ा’ के जैन मन्दिरों की याद दिलाती हैं। यहां स्थित सुन्धा अभिलेख भारतीय इतिहास का अनोखा दस्तावेज है। वस्तुतः प्रयाग का हरिषेण प्रशान्ति लेख या दिल्ली का महरौली स्तंभ लेख भारतीय इतिहास पर जितना महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है, उतना ही महत्वपूर्ण योगदान सुन्धा अभिलेख का भारतीय इतिहास के संकलन में रहा है। जालोर भीनमाल का वराह मन्दिर ‘भीनमाल’ स्थित वराह श्याम का मन्दिर भारत के अति प्राचीन व गिने-चुने वराह श्याम मन्दिरों से एक है। यहां स्थापित नर वराह की मूर्ति जैसलमेर के पीले प्रस्तर से निर्मित है जो सात फीट ऊंची तथा अढ़ाई फीट चौड़ी है। मंदिर के बाहरी चौक में स्थान-स्थान पर भूमि की खुदाई से प्राप्त मूर्तियां स्थापित की गई हैं, इसमें भगवान श्याम की चतुर्भुज मूर्तियां पुरातात्विक महत्त्व की हैं, जो तत्कालीन सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास की अन्यत्र स्थानों से मिली जानकारियों की पुष्टि करती हैं। जालोर नन्दीश्वर तीर्थ ‘जालोर’ कचहरी परिसर के ठीक सामने स्थित नन्दीश्वर तीर्थ भी पर्यटकों एवं श्रद्धालुओं के विशष आकर्षण का केन्द्र रहा है। मंदिर में बना कीर्तिस्तंभ कलात्मक दृष्टि से अनूठा है। मंदिर परिसर में स्थित विशाल धर्मशाला एवं भोजनशाला में तीर्थ यात्रियों के लिए आवास एवं भोजन की सुविधा उपलब्ध है, इनके अतिरिक्त भाण्डपुर का जैन मंदिर भी विख्यात एवं श्रद्धालुओं के आकर्षण का केन्द्र है। खगोल के प्रकाण्ड पण्डित ब्रह्मगुप्त इस जिले की महान विभूति थे, जिन्होंने ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त की रचना की थी। यमकालीन साहित्यकारों में मुनि कल्याण विजय, नैनमल जैन, रामेश्वर दयाल श्रीमाली, डा. देवदत्त नाग तथा लालदास राकेश के नाम उल्लेखनीय हैं। जालोर जागनाथ महादेव प्राचीन आश्रम व्यवस्था का युगों के व्यतीत होने के बाद आज के युग में प्रतिनिधित्व करने वाले आश्रमों में से यह एक अत्यन्त मनोहर स्थान है। अरावली पर्वतमाला में बना यह आश्रम चारों ओर रेत के टीलों से घिरा हुआ है जो कि वर्ष भर बहने वाले झरने के लगभग चरणों में स्थित है। यह झरना मंदिर से कुछ ही आगे चलकर बालू रेत में विलीन हो जाता है। यहां स्थित शिवलिंग इतना प्राचीन है कि इसे श्वेत स्फटिक प्रस्तर पट्टिकाओं से ढक दिया गया है ताकि जलाघात से लिंग को बचाया जा सके। शिवरात्रि के अवसर पर यहां विशाल मेले का आयोजन होता है। मंदिर की महत्ता के कारण यहां जागनाथ रेलवे स्टेशन भी स्थापित किया गया है। जालोर शिवरात्रि मेला ‘जालोर’ जिले में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि पर्व पर सिरे मंदिर, जागनाथ मंदिर, रामसीन स्थित आपेश्वर महादेव, ऊण ग्राम में ऊणेश्वर महादेव मंदिर आदि स्थानों पर धार्मिक मेलों का आयोजन होता है, जिसमें भारी संख्या में श्रद्धालु भक्तजन एकत्रित होते हैं। ‘रामसीन’ में यह मेला सप्ताह पर्यन्त चलता है। जालोर शीतला माता का मेला यह मेला वर्ष में एक बार चैत्र शुक्ला सप्तमी को जालोर, रणोदर, मूंगथलासिली आदि स्थानों पर आयोजित होता है। ‘जालोर’ मुख्यालय पर आयोजित मेले में विभिन्न जाति की महिलाएं आंचलिक गीत गाती हैं। विभिन्न ग्रामों की टोलियां ढपली पर फागुन के मस्ताने गीत गाती हुई आती हैं। यह मेला जालोर से कोई ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित शीतला माता के मंदिर पर आयोजित होता है। पारम्परिक वेशभूषा में ग्रामीणों का मेले के प्रति उत्साह देखते ही बनता है। जालोर आशापुरी मंदिर (मोदरा) समदड़ी-भीलड़ी रेल मार्ग पर महोदरी माता का अति प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा सप्तशती नामक भाग में भगवती दुर्गा का महोदरी अर्थात् ‘बड़े पेट वाली’ नाम वर्णित है। यहां स्थापित मूर्ति लगभग एक हजार वर्ष प्राचीन है जो कि उत्तरी गुजरात के खेरालू नामक ग्राम के एक भाजक से प्राप्त कर स्थापित की गई है। विक्रम संवत् १५३२ के एक शिलालेख के अनुसार इस मंदिर का प्राचीन नाम आशापुरी मंदिर था। ‘जालोर’ के सोनगरा चौहानों की जो शाखा नाडोल से उठकर ‘जालोर’ आई थी, आशापुरी देवी उनकी कुलदेवी थी। कहा जाता है कि आशापुरी देवी ने राम लक्ष्मण को स्वप्न में दर्शन देकर नाडोल का राज दिया था, इस बात की चर्चा मूथा नैणसी के ख्यात में है। यहां नवरात्रि के विशाल मेले का आयोजन होता है, जिसमें दूर-दूर से लोग देवी के दर्शनों के लिए आते हैं। ‘जालोर’ से लगभग ४० किलोमीटर दूर स्थित मोदरा ग्राम में प्रतिवर्ष होली के दूसरे दिन आशापुरी माताजी के मंदिर में मेला लगता है। श्रद्धालु ग्रामीणजनों ने जन सहयोग से मंदिर में नवनिर्माण के अनेक कार्य कराए हैं, जिससे मंदिर की शोभा बढ़ गई है। जालोर सुन्धा माताजी का मेला जिले के जसवन्तपुरा पंचायत समिति क्षेत्र में दांतलावास ग्राम के समीप स्थित पहाड़ियों के मध्य सुन्धा माता का मंदिर भक्तों का श्रद्धास्थल है, यहां पर वैशाख तथा भादों में शुक्ल पक्ष की तेरस से पूनम तक मेला लगता है तथा प्रति माह पूर्णिमा को भी मेले का सा वातावरण रहता है। जालोर पीरजी का उर्स ऐतिहासिक स्वर्णगिरि दुर्ग की सर्वोच्च चोटी पर मलिक शाह पीर के उर्स का आयोजन होता है जो धर्मिक एकता एवं हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के समन्वय का प्रतीक है। नाथ सम्प्रदाय के महन्त शंतिनाथजी द्वारा मलिकशाह पीर की मजार पर चादर चढ़ाने का निर्णय धार्मिक एकता का अद्वितीय प्रतीक है, इस अवसर पर आयोजित हुए जुलूस में हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों के सभी वर्गों के नर-नारी व बालक उत्साह से भाग लेते हैं। रात्रि में कव्वाली कार्यक्रम के साथ-साथ भगवान श्री राम, कृष्ण, शिव की अर्चना व मीरा के भजनों का गायन हिन्दू और मुसलमानों में परस्पर आत्मीयता उत्पन्न कर देता है।
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