लाडनूं मारवाड़ का गौरव
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मारवाड़ के नागौर क्षेत्र की भूमि जो देश प्रेम, त्याग, शौर्य और बलिदान की अमर गाथाओं की वजह से दुनिया भर में मशहूर है, वहीं लोक कला, साहित्य, संस्कृति और स्थापत्य के क्षेत्र में भी सदा जानी जाती रही है, इसी ज़िले का ‘लाडनूं’ शहर अपनी नैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामाजिक चेतना तथा आध्यात्मिक दृष्टि से भी काफ़ी समृद्ध रहा है। विश्व चर्चित सभी राजस्थानी परिवार की पत्रिका ‘मेरा राजस्थान’ के प्रबुद्ध पाठकों को प्रस्तुत विशेषांक में ‘लाडनूं’ की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि से रूबरू करवाते हैं:
‘लाडनूं’ ज़िला मुख्यालय नागौर से १००, जोधपुर से २५० और जयपुर से २१० किमी दूर, डेगाना-दिल्ली-जोधपुर रेलवे मार्ग पर बसा हुआ है। यहाँ स्थित ‘जैन सरस्वती’ प्रतिमा इस क़स्बे की विशेष पहचान है, इसके अलावा तेरापंथ के आचार्य तुलसी और महाप्रज्ञ जी की कर्म स्थली रही है। यह क़स्बा ८ पट्टियों और ४८ गलियों में सुंदर गृह विन्यास के रूप में भी जाना जाता है। जो कि अन्य क़स्बों के मुक़ाबले अपनी अलग पहचान रखता है। समृद्धशाली इस क़स्बे को ‘सेठाणा’ नाम से जाना जाता था। शहर की बड़ी झरोखेदार हवेलियां और संकरी गलियां आज भी अपनी जीवंतता की प्रतीक हैं। प्राचीन बावड़ी, कुएं और तालाब यहां के प्रमुख जल स्त्रोत रहे हैं। मोहिल (चौहान) शासकों ने यहां कई स्मारक बनवाए थे, इसी वजह से इस क्षेत्र को मोहलवाटी ‘लाडनूं, चुरू’ के नाम से भी जाना जाता है। नगर में नसिया, राहू गेट, गौशाला, नीलकण्ठ महादेवरा, करंट बालाजी, रामद्वारा, दरगाह सहित अन्य कई जन-आस्था केंद्र हैं, साथ ही पर्यटक स्थल मौजूद हैं।
श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर
वैसे तो इस नगर में कई प्राचीन धरोहरें मौजूद हैं, लेकिन इनमें से जैन कला और संस्कृति का स्थापत्य और पुरातत्व महत्व का श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर अतिशय क्षेत्र मुख्य धरोहर का केन्द्र है। चारों ओर बालू रेत के टीलों के बीच बसे इस प्राचीन नगर पर प्रतिहार, चौहान और राठौड़ वंशों का राज रहा है। ख़ासतौर से आठवीं से चौदहवीं शताब्दी तक यहां धर्म के साथ शिल्पकला की भी उन्नति भी हो रही थी, इस नगर के मध्य में स्थित प्राचीन काल का जैन मंदिर भारतीय स्थापत्य कला की अनुपम देन है। इस मंदिर में तीर्थंकर श्री शांतिनाथ, अजितनाथ, ऋषभदेव, नेमीनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी, श्री चन्द्रसागर स्मारक सहित सताधिक जिनेन्द्र प्रतिमाएं, पांच विशाल जिनालयों की शोभा बढ़ा रही हैं। यहां जैन संस्कृति की ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने वाली सांस्कृतिक धरोहर भी स्थापित है।
प्राचीन शिलालेख
यह मंदिर मूर्ति और स्थापत्य कला की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण और समृद्ध रहा है। लगभग १० से १५ फ़ुट ज़मीन के अंदर एक प्राचीनतम मंदिर का विशाल हिस्सा आज भी मौजूद है। भूगर्भ में पत्थरों के तीन स्तम्भों पर खड़ा यह भूगर्भीय मंदिर आज भी आम लोगों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं, कहा जाता है कि यह मंदिर खुदाई में निकला था, इसी मंदिर के ऊपर पहली मंज़िल पर एक भव्य जिनालय का निर्माण करवाया गया, इस दौरान यहां से कई प्रकार के पूजा पत्र, मूर्तियां, स्तम्भ, शिलालेख, धातु के बर्तन सहित अन्य पुरातन महत्व की चीज़ें निकली थी, जिन पर अलग-अलग वर्ष और तिथि अंकित हैं, यहां की मुख्य देव प्रतिमा शांतिनाथ जी की पद्मासन युक्त संगमरमर से निर्मित वेदी के मण्डप की छत नक़्क़ाशी और सुक्ष्म कारीगरी की बेमिसाल देन है, विभिन्न मुद्राओं में स्त्री-पुरूष, नृत्य करती मूर्तियां उकेरी हुई हैं, भूगर्भीय मंदिर के चार कलापूर्ण प्रवेश-द्वार बने हुए हैं। पत्थर के स्तम्भों पर देव और देवियों की मूर्तियों के अलावा बेलबूंटे भी बने हुए हैं, इन खम्भों पर कई लेख भी अंकित हैं, इनमें से एक ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा का माना जा रहा है, मंदिर की विश्व प्रसिद्ध जैन सरस्वती मूर्ति तोरण की चौकी पर पद्मासन मुद्रा में चतुर्भुजी लाजवाब है। मूर्ति पर संवत् १२१९ (सन ११६२) अंकित है।
श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर, सोलह विद्या देवी की मूर्ति।
१०वीं से १३वीं सदी तक की अनेक जिन प्रतिमाओं के साथ आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की अष्ट धातु प्रतिमा भी स्थापित है। मंदिर में दो स्तम्भों पर चरण पादुका चिन्ह के साथ एक लेख भी अंकित है। मंदिर का गगनचुम्बी शिखर दूर से ही नज़र आ जाता है। बारीक कलाकृति युक्त यह शिखर मंदिर की सुंदरता पर चार-चांद लगा रहा है। मंदिर जैन दर्शन सिद्धान्तों, जिनकल्याण, तीर्थ क्षेत्र, मुनि उपसर्ग आदि की सुंदर स्वर्णकारी और चित्रकारी से सुशोभित है।
सपादलक्षादथ नागपत्तनात् प्राचीदिशायां जलवर्जितं पुरम्।
लेख में राजा साधारण का वर्णन मिलता है, यह लेख संस्कृत भाषा में तिथि भाद्रपदवदि ३ शुक्रवार विक्रम संवत १३७३ (सन १३१६) का है। इसमें राजा साधारण द्वारा सपादलक्ष प्रदेश की राजधानी नागपत (नागौर) से साढ़े सात योजन की दूरी पर स्थित ‘लाडनूं’ नामक स्थान पर एक बावड़ी खुदवाने और उसकी प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है, साथ ही हरितान प्रदेश के नगर ढ़िल्ली (दिल्ली) के शासकों की नामावली भी दी गई है, एक जैन प्रतिमा पर संवत १३०३ (सन १२४६) उकेरे हुए हैं।
लाडनूं में प्रसिद्ध है
‘लाडनूं’ जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा में तेरापंथ धर्मसंघ में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है, इसी पंथ के नवें आचार्य श्री तुलसी के समय संघ का सर्वत्रोमुखी विकास के साथ नए आयाम जुड़े, इनमें से मुख्य रूप से ‘जैन विश्व भारती’ विश्वविद्यालय की वजह से दुनिया के नक़्शे पर उभर कर आया, क़स्बे में रंगाई-छपाई उद्योग के तहत चुनड़ी, लहरिया, पोमचा आदि विधाओं को नए आयाम मिले हैं, इसके अलावा रबर-टायर उद्योग, रसगुल्ला मिठाई, पत्थर उद्योग के अलावा सौंप, चुरी का व्यवसाय भी यहां की पहचान है। ‘लाडनूं’ की प्राचीन हवेलियों में बड़े चौक रखने की परम्परा रही है, भवन समन्वय शैली के तहत हिन्दू, मुस्लिम, राठौड़ आदि शैलियों का अद्भूत मिश्रण है। राठौड़ जोधा खांप शासकों की कलात्मक भव्य छतरियाँ कला की दृष्टि से अमूल्य धरोहर हैं। यह क़स्बा सेठाणा के अलावा, ‘थली प्रदेश’ का प्रवेश-द्वार भी कहलाता है। नगर प्रहरी वीर रमणी सुरजन (सुरजा), संत गोविन्ददास महाराज और आचार्य महाप्रज्ञ की भी साधना स्थली रही है। प्राचीन भारत के प्रमुख व्यापारिक राजमार्ग पर स्थित होने के कारण ‘लाडनूं’ सदैव जोधपुर, अजमेर और नागौर की राजसत्ताओं के नियंत्रण में रहा, इस शहर की प्राचीनता और इतिहास से संबंधित कई धारणाएं आज भी आम लोगों में प्रचलित हैं।
श्री करंट बालाजी मंदिर
श्री करंट बालाजी मंदिर, लाडनू का एक प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षण है। यह मंदिर हनुमान जी के सैनिक माने जाने वाले एक बन्दर को बिजली के करंट लगने से मौत हो जाने के कारण बना था, इसलिए इस मंदिर का नाम श्री करंट बालाजी मंदिर है।
श्री चंद्रसागर स्मारक जैन मंदिर
कांच से बना जैन मंदिर- नागौर का जैन ग्लास मंदिर कमला टॉवर के पीछे स्थित है। यह पूरा मंदिर कांच से बना है और यह सभी जैन मंदिरों में से एक अनोखा मंदिर है।
श्री डूंगर बालाजी मंदिर
महाभारत कालीन प्राचीन द्रोणागिरी पर्वत पर स्थित बालाजी का मंदिर, श्री डूंगर बालाजी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। श्री डूंगर बालाजी मंदिर राजस्थान के प्रसिद्ध मंदिरो में से एक है। यह मंदिर सुजानगढ़ रेलवे स्टेशन से तक़रीबन १३ किलोमीटर दूर गोपालपूरा ग्राम के पास एक पहाड़ी पर स्थित है। ये
पहाड़ी २१०० फिट ऊँची होने के साथ-साथ प्राचीन कालीन भी मानी जाती, इस पहाड़ी को महाभारत कालीन भी कहा जाता है।
धर्मशाला तथा अतिथि भवन:
रेलवे स्टेशन पर सिंघीजी की धर्मशाला (अब इसका नवीनिककरण हो गया है तथा उस स्थान पर एक आलीशान सार्वजनिक भवन बन गया है।) रावगेट पर हरकचन्द राधाकिशन किला धर्मशाला। इसके अतिरिक्त ओसवाल पंचायती भवन, ओसवाल अतिथि भवन, भैया धर्मशाला, अग्रवाल भवन, बद्री भवन, रामचन्द्र किला भवन, पन्नालाल फोगला भवन, बगड़ा भवन, विश्वकर्मा भवन, प्रजापति भवन, जैन भवन, गोविन्ददास स्मृति भवन, माहेश्वरी भवन, जोगड़ भवन, जुहारमल रोड़ा भवन, खाण्डल विप्र भवन, पारीक भवन, दाधीच भवन, मेढ़ क्षत्रिय स्वर्णकार भवन, रिधकरण बोथरा भवन, भंवरलाल लूंकड़ स्मृति भवन, रामेश्वर किला भवन, चावण्डा मन्दिर भवन, कायमखानियों का पंचायत भवन, मेड़तिया सिलावट मदरसा भवन, मोहिलों का पंचायत भवन, सुखजी ठेकेदार की धर्मशाला आदि प्रमुख सार्वजनिक भवन हैं।
आर्य समाज
इस शहर में आर्य समाज का इतिहास इस पूरी सदी को ही घेर लेता है। नव-जागरण में इस संस्था ने अहम भूमिका निभाई। आजादी के लिए लड़ने वाले अनेक कार्यकर्ता आर्य समाज की ही देन थे। इस संस्था का निजी भवन राव-दरवाजे के ठीक बाहर थोड़ी दूर पर स्थित है। इसके पुराने कार्यकर्ताओं की एक लम्बी सूची है, जिसमें स्व. सिरहमल आर्य, मोतीलाल स्वर्णकार, चुन्नीलाल आर्य, सोहनलाल बैद (जोहरी) आदि के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।
लाडनूँ स्थित सुखदेव आश्रम
लाडनूँ नगर के ऐतिहासिक अस्तित्व के समान ही प्राचीन है यहाँ की सांस्कृतिक विरासत। स्थापत्य कला के एक से बढ़ कर एक बेहतरीन स्मारक, इस प्राचीन नगर की शोभा में चार चाँद लगा देते हैं। ११ वीं सदी के अद्भुत शिल्प का एक नायाब नमूना जहाँ ‘दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर’ के रुप में विद्यमान है वहीं आधुनिक शिल्प का अद्वितीय अक्स सुखदेव आश्रम में देखा जा सकता है। वीर निर्वाण सम्वत् २४७८ विक्रम सम्वत् २००९ की वैशाख शुक्ला त्रयोदशी बुधवार को, स्थानीय सेठ श्रीमान सुखदेव गंगवाल के सुपुत्रों सर्वश्री भैंरूदान, तोलाराम, हंसराज, बच्छराज और गजराज, पंच भ्राताओं द्वारा पं. श्री रामप्रसाद जी शास्त्री के दिशा निर्देश में विधि-विधान से इस मन्दिर का शिलान्यास सम्पन्न हुआ।
यह मन्दिर लाडनूँ नगर के पुराने परकोटे के दक्षिणी द्वार (ऐतिहासिक राहूगेट वर्तमान हनुमान गेट) के बाहर दक्षिण दिशा में वर्तमान बस स्टैण्ड के पूर्वी कोने पर व रेल्वे स्टेशन से डेढ़ किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। सुखदेव आश्रम के तोलाराम में उद्यान को पार करने के बाद, पूर्णतया सफेद संगमरमर से निर्मित मंदिर का क्षेत्र प्रारम्भ होता है। सामने सीढ़ियाँ चढ़ते ही उत्तरोत्तर छोटे होते जाते एक के बाद एक तीन समतल चबूतरों पर भगवान बाहुबली की आदमकद प्रस्तर प्रतिमा के दर्शन होते हैं। इस विशाल प्रतिमा के बाद इसी प्रकार के पंचसीढ़ी चबूतरे पर उन्नत मान स्तम्भ हैं। मानस्तम्भ के आधार व शिखर पर चारों दिशाओं की ओर उन्मुख तीर्थंकरों एवम् भगवान चन्द्र प्रभु की पद्मासन मुद्रा में चार प्रतिमाएँ हैं।
मान स्तम्भ के ठीक सामने उत्तर दिशा में खुलता मन्दिर का प्रवेश द्वार है जिसके दोनों ओर गर्जना करते इटालियन संगमरमर के सिंहों की सजीव प्रस्तर प्रतिमाएँ, भगवान महावीर की अहिंसा को, कायरों की अहिंसा से अलहदा घोषित करती प्रतीत होती हैं।
दस खण्डों में विभाजित लगभग ६० फीट लम्बे सभा मण्डप को पार करने के बाद, मन्दिर के गर्भ गृह तक पहुँचा जा सकता है। मन्दिर का गर्भगृह चार चौकोर व छ: बेलनाकार स्तम्भों पर अष्टफलीय आधार वाली अण्डाकार छत से आच्छादित है। गर्भगृह में फर्श से पाँच सीढ़ी ऊपर नक्काशीदार तोरण युक्त आसन पर श्री १००८ श्री आदिनाथ भगवान की सर्वधातु निर्मित मनोहारी प्रतिमा विराजमान है जो उत्तराभिमुखी है तथा पद्मासन मुद्रा में प्रतिष्ठित है। प्रतिमा के सामने स्थित तोरण पर विभिन्न आकृतियाँ इतनी बारीकी से उकेरी गई हैं कि देखते ही बनती है। संगमरमर के इस छोटे से तोरण को अलंकृत करने में दस्तकारों ने जैसे अपना सम्पूर्ण हुनर ही भगवान आदिनाथ की शान में समर्पित कर दिया हो। उक्त तोरण पर दोनों ओर विभिन्न मुद्राओं में भगवान महावीर की कुल ५३ प्रतिमाएँ उकेरी हुई हैं जिनकी बारिकी बेजोड़ है। मन्दिर के गर्भ गृह के दोनों पार्श्व में स्थित अलग-अलग कक्षों में स्थापित भरतेश्वर स्वामी तथा बाहुबली की प्रतिमाएँ भी मनोहारी हैं। गर्भ गृह के बाजू में ही दो अन्य कक्षों में भी क्रमश: ५ व ४२ प्रतिमाएँ विराजित हैं। एक कक्ष की ४२ प्रतिमाओं में से २८ संगमरमर व १४ धातु द्वारा निर्मित हैं।
दर्शन के पश्चात बाहर आने के बाद भी संगमरमर के इस विशाल उपासना स्थल की भव्यता और वैशिष्ट्य श्रद्धालु मन को नमनीय बनाये रखता है।
वस्त्रों की रंगाई-छपाई का उद्योग
गत पाँच दशकों में इस उद्योग ने इस शहर में अच्छी साख हासिल कर ली है। शहर के सैकड़ों परिवार इस धंधे से जुड़े हुए हैं। महिलाएँ भी इसमें सहयोगी हैं। शहर का यह एक महत्वपूर्ण घरेलू उद्योग है। इस धन्धे के अग्रसरों में लाल मोहम्मद भाटी (छींपा) उर्फ लाल मोड़ी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। स्व. लाल मोहम्मद अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। रंग विन्यास ओर डिजाइन के तालमेल को परखने और निखारने की अद्भुत दृष्टि तथा कौशल पाया था उन्होंने। चूनड़ी, लहरिया, पोमचा आदि परम्परागत विधाओं को उन्होंने नए आयाम दिए। उनके द्वारा सज्जित िंप्रट की डिजाइनें देश में दूर-दूर तक लोकप्रिय हुईं।
छापर अभ्यारण्य
छापर अभ्यारण्य लाडनूं से २५ किमी की दूरी पर स्थित है। यह अभ्यारण्य भारत के सबसे खूबसूरत मृग ‘ब्लैकबक्स’ के घर के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ कुछ मौसमी तालाब हैं जो जानवरों के लिए पानी के स्रोत के रूप में काम करते हैं।
पक्षी प्रेमी मार्च के महीने में डेमोइसेल क्रेन जैसे प्रवासी पक्षियों को देख सकते हैं जो यूरेशिया से आते हैं। ब्लैकबक्स के अलावा, यात्री यहाँ साल भर रेगिस्तानी लोमड़ियों, रेगिस्तानी बिल्लियों, तीतरों और सैंड ग्रूज़ को भी देख सकते हैं।
यह अभ्यारण्य एक विशेष प्रकार की घास के लिए प्रसिद्ध है जिसे स्थानीय भाषा में ‘मोथिया’ कहा जाता है। ‘मोथिया’ शब्द ‘मोती’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है मोती। घास के बीज मोती जैसे दिखते हैं और इनका स्वाद मीठा होता है। पर्यटक इन बीजों को खाने का आनंद ले सकते हैं जो काले हिरणों और पक्षियों के लिए भोजन का काम भी करते हैं।