रंगों का त्यौहार होली

रंगों का त्यौहार होली

होली एक ऐसा त्यौहार है जो सबको रंग-बिरंगा कर देता है और सब एक सामान हो जाते हैं। प्यार मोहब्बत कोबढ़ाने और बुराई के अंत का यह त्यौहार बहुत ही रंगीला है।
भारत में यह त्यौहार मुख्यत: हिन्दू धर्म के लोग मनाते हैं, लेकिन भारत विविधताओं का देश है, यहाँ हर धर्म केव्यक्ति सारे त्यौहार मिल-जुल कर मनाते हैं।
ऐसी मान्यता है कि इस दिन सभी अपनी सारी कटुता भुला कर फिर से मित्रता कर लेते हैं। एक दूसरे के चेहरे पर रंग, गुलाल और अबीर लगाते हैं। रंग-बिरंगे ये त्यौहार भारत के साथ-साथ दुनिया भर के लोगों को आकर्षित करता है, लेकिन क्या आपको पता है, कब और क्यों मनाई जाती है होली? क्या है इसका इतिहास और क्यों इस
त्यौहार में रंगों का इस्तेमाल होता है?
इसी संदर्भ में ‘मेरा राजस्थान’ के प्रस्तुत अंक में होली से सम्बंधित जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं: 
होली कब मनाई जाती है ?
सबसे पहले तो ये जान लें की रंगों का त्यौहार ‘होली’ कब मनाई जाती है।
होली भारत में बहुत उत्साह से मनाया जाने वाला वसंत ऋतु का त्यौहार है। हिंदू पंचांग के अनुसार होली फाल्गुनमहीने की पूर्णिमा को मनाई जाती है।
अंग्रेजी महीनों के हिसाब से होलिका दहन का समय २०२१ में २८ मार्च व २९ मार्च को होली रंगों की मनाई जा रही
है।

होलिका दहन की कहानी
भारतीय संस्कृति में होलिका दहन की कहानी का एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह बहुत ही प्रसिध्द् कहानी है। प्राचीनकाल में हिरण्यकश्यप नाम का एक राक्षस होता था, उसकी यह इच्छा थी कि सभी लोग उसे भगवान की जगह पूजें, परन्तु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। राक्षस हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद ने ही उसे भगवान मानने से इंकार कर दिया। भक्त प्रह्लाद ईश्वर का नाम ही लेता था, यह बात पिता राक्षस को बिलकुल भी अच्छी न लगी, उसे लगा अगर उसका अपना पुत्र ही उसे प्रभु मानने से इंकार कर रहा है तो बाकी लोग क्या करेंगे? हिरण्यकश्यप की एक बहन थी जिसका… नाम होलिका था। होलिका ने अपने तपोबल से यह वरदान प्राप्त किया था कि उसे आग न जला सके, उसने प्रह्लाद को मारने के लिए अपने भाई को यह सुझाव दिया कि प्रह्लाद को उसकी गोद में बिठा कर आग में जला दिया जाए, जिसमें वरदान के कारण वह बच जाएगी और प्रह्लाद का अंत हो जायेगा। अब होलिका और प्रह्लाद को एक साथ बिठा कर जलाया गया, तो प्रह्लाद ईश्वर का नाम लेता रहा और बच गया, वहीं होलिका अपने वरदान का अनुचित उपयोग करने के कारण जलकर मर गयी, उस दिन से ये होली का त्यौहार अस्तित्व में आया। होलिका दहन का प्रचलन आज भी है और रंगोली होली से एक दिन पहले होलिका दहन की रस्म निभाई आती है और होलिका दहन के बाद एक दूसरे के चेहरे पर रंग लगाया जाता है। राजस्थान के विभिन्न इलाकों में होली अलग-अलग तरीकों से अलग ही अंदाज व अनूठी परंपरा के साथ मनाई जाती है। यहाँ की होली में मर्द, औरतों पर पानी डालते हैं और बदले में औरते मर्दों की लाठियों से पिटाई करती हैं इसके अलावा गोधाजी की गैर होली और बीकानेर की डोलची होली भी बेहद खूबसूरत होती है।
जयपुर की तमाशा होली
भारतीय संस्कृति में होलिका दहन की कहानी का एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह बहुत ही प्रसिध्द् कहानी है। प्राचीनकाल में हिरण्यकश्यप नाम का एक राक्षस होता था, उसकी यह इच्छा थी कि सभी लोग उसे भगवान की जगह पूजें, परन्तु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। राक्षस हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद ने ही उसे भगवान मानने से इंकार कर दिया। भक्त प्रह्लाद ईश्वर का नाम ही लेता था, यह बात पिता राक्षस को बिलकुल भी अच्छी न लगी, उसे लगा अगर उसका अपना पुत्र ही उसे प्रभु मानने से इंकार कर रहा है तो बाकी लोग क्या करेंगे? हिरण्यकश्यप की एक बहन थी जिसका… नाम होलिका था। होलिका ने अपने तपोबल से यह वरदान प्राप्त किया था कि उसे आग न जला सके, उसने प्रह्लाद को मारने के लिए अपने भाई को यह सुझाव दिया कि प्रह्लाद को उसकी गोद में बिठा कर आग में जला दिया जाए, जिसमें वरदान के कारण वह बच जाएगी और प्रह्लाद का अंत हो जायेगा। अब होलिका और प्रह्लाद को एक साथ बिठा कर जलाया गया, तो प्रह्लाद ईश्वर का नाम लेता रहा और बच गया, वहीं होलिका अपने वरदान का अनुचित उपयोग करने के कारण जलकर मर गयी, उस दिन से ये होली का त्यौहार अस्तित्व में आया। होलिका दहन का प्रचलन आज भी है और रंगोली होली से एक दिन पहले होलिका दहन की रस्म निभाई आती है और होलिका दहन के बाद एक दूसरे के चेहरे पर रंग लगाया जाता है। राजस्थान के विभिन्न इलाकों में होली अलग-अलग तरीकों से अलग ही अंदाज व अनूठी परंपरा के साथ मनाई जाती है। यहाँ की होली में मर्द, औरतों पर पानी डालते हैं और बदले में औरते मर्दों की लाठियों से पिटाई करती हैं इसके अलावा गोधाजी की गैर होली और बीकानेर की डोलची होली भी बेहद खूबसूरत होती है।
आयोजन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि कुछ इस प्रकार है: एक समय था जब बीकानेर में यह कहावत प्रचलित थी कि गढ़ में बीका और शहर में कीका मतलब यह कि बीकानेर के गढ़ में राजा बीकाजी का कहा चलता था और शहर में पुष्करणा समाज की जाती कीकाणी व्यासों का कहा माना जाता था। पुष्करणा समाज के जातिय प्रतिनिधि के तौर पर कीकाणी व्यास पंचायत को पूरे पुष्करणा समाज का नेतृत्व करने का दायित्व था और उन्हें उस समय धड़पति कहा जाता था। कीकाणी व्यास पंचायत के लोग ही पुष्करणा समाज के अन्य जातियों के शादी-विवाह सहित मृत्युभोज आयोजन की स्वीकृति देते थे, इन आयोजनों की स्वीकृति लेने के लिए जिस घर में काम पड़ता था उसे कीकाणी व्यास पंचायत के लोगों के पास जाना पड़ता था और कीकाणी व्यासों के चौक में बैठकर पंचायती के लोग सामाजिक स्वीकृति देते, तभी वह आयोजन संभव हो पाता था। ऐसी सामाजिक स्वीकृति को ‘दूआ’ कहा जाता था। कीकाणी व्यासों के चौक में आज भी वह ‘दुए की चौकी’ विद्यमान है जिस पर बैठकर समाज के पंच समस्याओं के संबंधित पैâसला करते थे। इसी क्रम में पुष्करणा समाज के आचार्य जाति के लोगों के यहाँ किसी की मौत हो गई और उन्हें कीकाणी व्यासों के पास ‘दूआ' लेने के लिए जाना पड़ा। जिस समय आचार्य जाति के लोग ‘दूआ' लेने गए उस समय कीकाणी व्यास पंचायती के लोग चौक में उपस्थित नहीं थे और इस कारण आचार्यों को काफी इंतजार करना पड़ा, इस इंतजार से ये लोग परेशान हो गए लेकिन करते भी क्या? सामाजिक स्वीकृति लेनी जरूरी थी और बिना इसके कोई आयोजन संभव नहीं था। बाद में लम्बे इंतजार के बाद कीकाणी व्यास पंचायत के लोग आए तो आचार्यों को दूआ दे दिया लेकिन अपने लम्बे इंतजार करवाने के अपमान के कारण आचार्यों ने कीकाणी व्यासों के सामने आपत्ति दर्ज करवाई, जिसे कीकाणी व्यास पंचायत ने गौर नहीं किया। इस पर आचार्य जाति के लोगों ने गुस्से में यह कह दिया कि अगर अगली बार हम आपके यहाँ ‘दूआ' लेने आए तो हम गुलामों के घर जन्म लें और ऐसा कहकर वे चले आए। कुछ समय बाद इन्हीं आचार्य जाति के लोगों से फिर काम पड़ा और उन्हें फिर से उसी कीकाणी व्यास पंचायत के पास जाना पड़ा। जब ये लोग कीकाणी व्यासों के चौक में पहुँचे तो कीकाणी व्यासों ने अपने छत पर जाकर थाली बजाई और कहा कि आज हमारे गुलामों के बेटा हुआ है और हमारे चौक में आया है। आचार्य जाति के लोग अपने इस घोर अपमान को सहन नहीं कर सके और बिना दूआ लिए ही वापस रवाना हो गए। रास्ते मे हर्षों के चौक में इन आचार्य जाति के लोगों का ननिहाल था। जब इन हर्ष जाति के लोगों को यह बात पता चली तो इन्होंने अपने भांजों की इज्जत रखने के लिए कहा कि आप िंचता न करें, आपके यहाँ होने वाले भोज का आयोजन हम करवा देंगे और समाज के लोगों को बुला भी लेगें। चूंकि हर्ष जाति के लोग साधन सम्पन्न व धनिक थे अत: समाज का एक वर्ग उनके साथ भी था जैसा कि वर्तमान में भी देखने को मिलता है कि कुछ लोग पैसे वालों के साथ होते है तो कुछ लोग पावरफुल व्यक्तियों के साथ, वैसा ही कुछ उस समय भी था, कुछ लोग हर्ष जाति के साथ थे लेकिन ज्यादातर लोगों का साथ व्यास जाति के साथ ही था। खैर जैसा भी हो हर्ष जाति के लोगों ने अपने नातिनों की भोज की व्यवस्था की जिम्मेदारी संभाली और वर्तमान में बीकानेर में जहॉं हर्षों का चौक है वहाँ गेवर गली में बड़े-बड़े माटों में लापसी बनाने के लिए गाल बनाकर रख ली और भोज के आयोजन की सारी तैयारियाँ कर ली। जब कीकाणी व्यास पंचायती को यह पता लगा तो उन्हें यह सहन नही हुआ, और उन्होंने रात के समय छिप कर इन माटों में पड़ी गाल को गिरा दिया और माटे फोड़ दिए इस बात को लेकर हर्ष व व्यास जाति के लोगों के बीच जातीय संघर्ष हुआ और आपस में लड़ाई हुई और यह विवाद काफी गहराया, उस समय पूरे पुष्करणा समाज में दो गुट बन गए जिसमें कुछ लोग हर्ष जाति के साथ हो गए और कुछ व्यास जाति के साथ। लम्बे संघर्ष के बाद इन जातियों में समझौता हुआ और हर्ष व व्यास जाति के लोगों के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित हुए, इसी जातीय संघर्ष की याद में उसी गेवर गली के आगे आज भी होली के अवसर पर हर्ष व व्यास जाति के लोग डोलची होली खेलते है। इसमें आचार्य जाति के लोग हर्ष जाति के साथ होते हैं और बाकी लोग व्यास जाति के साथ।
इस खेल में चमड़े की बनी डोलची होती है जिसमें पानी भरा जाता है और यह पानी हर्ष व व्यास जाति के लोग एक दूसरे की पीठ पर पूरी ताकत के साथ फेंकते हैं। पानी का वार इतना तेज होता है कि पीठ पर निशान बन जाते हैं। इस खेल को हर्षों के चौक में हर्षों की ढलान पर खेला जाता है। पानी डालने के लिए बड़े-बड़े कड़ाव यहाँ रखे जाते है। खेल के प्रारम्भ होने से पहले इस स्थल पर अखाड़े की पूजा होती है और खेल में हिस्सा लेने वाले लोगों को तिलक लगाया जाता है। बता देना यह जरूरी है कि व्यास जाति के लोगों द्वारा खेल से एक दिन पहले गेवर का आयोजन किया जाता है जो कीकाणी व्यासों के चौक से रवाना होती है और तेलीवाड़ा में स्थित भक्तों की गली तक जाकर आती है। यहाँ ये लोग अपने खेल के लिए पैसा इकट्ठा करते है और होली के गीत गाते हुए मस्ती व उल्लास के साथ जाते हैं। अगले दिन इसमें खेल की शुरूआत व्यास जाति के लोगों के आने के साथ होती है और यहाँ पानी की व्यवस्था हर्ष जाति के लोगों द्वारा की जाती है। करीब तीन घण्टे तक इस खेल में पानी का वार चलता रहता है और अंत में हर्ष जाति के लोग गुलाल उछालकर खेल के समापन की घोषणा करते हैं। समापन के साथ ही गेवर गली के आगे खड़े होकर ये लोग होली के गीत गाते हैं और अपनी विजय की घोषणा कर प्रेमपूर्वक होली मनाते हैं। परम्पराओं के निर्वहन में आज भी बीकानेर के लोग पीछे नहीं हैं। यह आयोजन, साल बाद भी पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। बाद में शाम के समय इसी दिन हर्ष जाति के लोग हर्षोल्लास के साथ तालाब स्थित अपने कुलदेव अमरेश्वर महादेव की पूजा करते हैं और गेवर के रूप में गीत गाते हुए अपने घर की ओर आते हैं। आज भी इन जातियों के लोग अपनी परम्पराओं से गहरे तक जुड़े हैं। इस दिन इस चौक से जाने वाला प्रत्येक व्यक्ति भीग कर ही जाता है।
भरतपुर की होली
राजस्थान का भरतपुर क्षेत्र ब्रज का भाग होने से वहाँ की संस्कृति पर ब्रजांचल का पूरा प्रभाव है। यहाँ होली अत्यंत ही धूमधाम के साथ मनाई जाती है। ब्रजांचल फाल्गुन के आगमन के साथ ही होली के रंग में रंगना शुरू हो जाता है, यहाँ होली की परंपरा अत्यंत ही प्राचीन है तथा कृष्ण भक्ति से ओतप्रोत है। कृष्ण भक्ति के रस में डूबे हुए होली के रसिया गीत ब्रज की धरोहर है, जिनमें नायक ब्रजराज रास बिहारी भगवान श्रीकृष्ण तथा नायिका ब्रजेश्वरी राधारानी को हृदय के अंतरतम में विराजमान कर भक्ति भावना से हुरियारे लोग रसिये गाते हुए रंगों से सराबोर होते हुए होली खेलते हैं। ब्रज के गाँव-गाँव में ब्रजवासी अपने लोकवाद्य ‘बम’ के अलावा ढप, ढोल एवं झांझ बजाते हुए ‘रसिया’ गाते हैं। डीग ब्रज की हृदयस्थली है, होली उत्सव में यहाँ की ग्रामीण महिलाएँ अपने सिर पर भारी भरकम ‘चरकुला’ रखकर उस पर जलते दीपकों के साथ नृत्य करती है। चरकुला यहाँ का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। संपूर्ण ब्रज में आनंद की अमृत वर्षा होती है। यही रंगीन परंपरा ब्रज की सांस्कृतिक धरोहर है। रियासती जमाने में भरतपुर के ब्रज अनुरागी राजाओं ने यहाँ सर्वसाधारण जनता के लिए स्वांगों की परंपरा को संरक्षण दिया जो आज भी इस अंचल में प्रचलित है। दामोदर जैसे गायकों के रसिया भरतपुर के जन-जन की जुबान पर है जिनमें श्रृंगार रस के साथ ही अध्यात्म रस की अमृतधारा बहती है, यहाँ की स्त्रियाँ फाल्गुन आते ही गा उठती है

‘‘सखी री भागन ते फागुन आयौ, 
मैं तो खेलूंगी श्याम संग फाग’’
ब्रज के एक कवि ने कहा है
‘‘कंकड़ हूँ जहाँ कांकुरी है रहे,
संकर हूँ कि लगै जहं तारी,
झूठे लगे जहं वेद-पुराण और मीठे लगे रसिया रसगारी’’

बरसाने, नंदगांव, कामां, डीग आदि स्थानों पर ब्रज की लट्ठमार होली की परंपरा आज भी यहां की संस्कृति को पुुष्ट करती है। चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा भी प्रसिद्ध है। भरतपुर जिले में ‘होली’ से पहले ही विभिन्न आयोजन प्रारंभ हो जाते हैं जो होली के पश्चात भी चलते रहते हैं।
डूंगरपुर के भीलूड़ा गाँव की पत्थरमार होली
आदिवासी बहुल वागड़ क्षेत्र के डूंगरपुर जिले के भीलूड़ा गाँव में खेली जाने वाली पत्थरमार होली राजस्थान भर में अपनी तरह की अनूठी एवं मशहूर होली है जिसमें लोग रंग, गुलाल तथा अबीर के स्थान पर एक-दूसरे पर जमकर पत्थरों की बारिश करते हैं इस गाँव की वर्षों पुरानी इस परम्परा के अनुसार होली के दूसरे दिन धुलेडी पर्व पर शाम को इस रोमांचक होली का आयोजन होता है, इस होली को देखने आसपास के कई गाँवों से हजारों की संख्या में ग्रामीण इकट्ठे होते है। शाम ढलते-ढलते पत्थरमार होली खेलने वाले लोग गाँव के श्रीरघुनाथ मन्दिर के सामने के मैदान में जमा हो जाते हैं और इस पत्थरमार होली की शुरूआत करते हैं। सबसे पहले आमने-सामने पत्थर उछालने से यह अनूठा शुरू होता है। इस विचित्र होली के दौरान वीर रस की धुन पर ढोल नगाड़ों का वादन चलता रहता है और यह कार्यक्रम परवान चढ़ता चला जाता है, जैसे-जैसे नगाड़े की आवाज तेज होती जाती है वैसे-वैसे पत्थरों की बारिश भी तेज होती जाती है बाद में पत्थरों की मार से छितरा, समूहों पर पत्थर फेकने के लिए गोफण (रस्सी से बनी पारंपरिक गुलैल) भी प्रयुक्त की जाती है।
पाली का गेर नृत्य पाली के ग्रामीण इलाकों में फाल्गुन से ही गेर नृत्य शुरू हो जाता है कहीं यह नृत्य डंका पंचमी से भी शुरू होता है। फाल्गुन के पूरे महीने रात में चौहटों पर ढोल और चंग की थाप पर गेर नृत्य किया जाता है। मारवाड़, गोडवाड़ इलाके में डांडी गैर नृत्य बहुत होता है और यह नृत्य इस इलाके में खासा लोकप्रिय है यहां फाग गीत के साथ गालियां भी गाई जाती है। मेवाड़-मुर्दे की सवारी मेवाड़ अंचल के भीलवाड़ा जिले के बरून्दनी गांव में होली के सात दिन बाद शीतला सप्तमी पर खेली जाने वाली लट्ठमार होली का अपना एक अलग ही मजा है। माहेश्वरी समाज के स्त्री-पुरूष यह होली खेलते है। डोलचियों में पानी भरकर पुरूष महिलाओं पर डालते है और महिलाएं लाठियों से उन्हें पीटती है। पर पिछले सालों से यह परंपरा अब कम ही देखने को मिलती है। यहां होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती है वहीं शीतला सप्तमी पर चित्तौड़गढ वालों की हवेली से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है। इसमें लकड़ी की सीढी बनाई जाती है और जिंदा व्यक्ति को उस पर लिटाकर अर्थी पूरे बाजार में निकालते है इस दौरान युवा इस अर्थी को लेकर पूरे शहर में घूमते है लोग इन्हें रंगों से नहला देते है।
शेखावाटी में चंग-गींदड होली
फाल्गुन शुरू होते ही शेखावाटी में होली का हुड़दंग शुरू हो जाता है, हर मोड़ों पर चंग पार्टी होती है। होली के पखवाडे में पहले गींदड (एक खास नाच) शुरू हो जाता है। इसमें लडके गोल घेरे में घूमते हुए नृत्य करते है ये बहुत कुछ गुजरात के डांडिया से मिलता है, जगह-जगह भांग घुटती है। हालांकि अब ये नजारे कम ही देखने को मिलते है, जबकि शेखावाटी में ढूंढ का चलन अभी है। परिवार में बच्चे के जन्म होने पर उसका ननिहाल पक्ष और बुआ कपड़े और खिलौने होली पर बच्चे को देते है।
श्रीगंगानगर में कोड़े वाली होली
श्रीगंगानगर में भी होली मनाने का खास अंदाज है, यहां देवर-भाभी के बीच कोड़े वाली होली काफी चर्चित रही है। होली पर देवर-भाभी को रंगने का प्रयास करते है और भाभी-देवर की पीठ पर कोड़े मारती है। इस मौके पर देवर- भाभी से नेग भी मांगते हैं।
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