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श्राद्ध कर्म से मिलती पूर्वजों को मुक्ति

श्राद्ध कर्म से मिलती पूर्वजों को मुक्ति

पितृ पक्ष का महत्व : पौराणिक ग्रंथों में वर्णित किया गया है कि देवपूजा से पहले जातक को अपने पूर्वजों की पूजा करनी चाहिये। पितरों के प्रसन्न होने पर देवता भी प्रसन्न होते हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में जीवित रहते हुए घर के बड़े बुजूर्गों का सम्मान और मृत्योपरांत श्राद्ध कर्म किये जाते हैं। इसके पीछे यह मान्यता भी है कि यदि विधिनुसार पितरों का तर्पण न किया जाये तो उन्हें मुक्ति नहीं मिलती और उनकी आत्मा मृत्युलोक में भटकती रहती है। पितृ पक्ष को मनाने का ज्योतिषीय कारण भी है। ज्योतिषशा में पितृ दोष काफी

उद्धारक है गणेश संकष्ट चतुर्थी

उद्धारक है गणेश संकष्ट चतुर्थी

ऋषियों ने स्कन्द (स्वामी कार्तिकेय) से पूछा- ‘हे देव! दरिद्रता और दु:खों से आतुर, दुश्मनों से दु:खी, धनहीन, पुत्रहीन, बेघर, विद्या से रहित दु:खी व्यक्ति अपने सुख के लिए, उपद्रवों से बचने के लिए,अपने कल्याण के लिए कौन से व्रत का अनुष्ठान करें जो उनके लिए सिद्धिदायक हो, कृपा करके हमें यह बताइये!’यह सुनकर स्वामिकार्तिकेय बोले, ‘हे मुनियों! संकट हरने वाला, सम्पत्ति और सुख देने वाला, एक उत्तम व्रत मैं आपको बताता हूँ जिसके करने से मनुष्य संकटों से पार होकर सुखी बनता है

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव सम्पूर्ण मण्डल में, घर-घर में, मन्दिर-मन्दिर में मनाया जाता है, अधिकतर लोग व्रत रखते हैं और रात को बारह बजे ही ‘पंचामृत या फलाहार’ ग्रहण करते हैं, फल, मिष्ठान,वस्त्र, बर्तन, खिलौने और  रुपये लुटाए जाते हैं, जिन्हें प्राय: सभी श्रद्धालु लूटकर धन्य होते हैं। गोकुल, नन्दगाँव, वृन्दावन आदि में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की बड़ी धूम मचती है। छबीले का छप्पन भोग श्रीकृष्ण आजीवन सुख तथा मानव सेवा में रहे, इसलिए जन्माष्टमी को इतने शानदार ढंग से मनाया जाता है,इस दिन अनेक प्रकार के मिष्ठान्न, पकवान बनाए जाते हैं। जैसे लड्डू, चकली

भृगुवंशी अथर्वानन्दन महर्षि दधीचि

भृगुवंशी अथर्वानन्दन महर्षि दधीचि

भारत भूमि के लिए किसी ने सत्य ही कहा है ‘‘आतो सगला ने शरमावे, इन पर देव रमण न आवे, इनरो यश नर-नारी गावे, आ धरती आपा सगलां री.ऐसी पावन भूमि पर महात्यागी, महाज्ञानी, परोपकारी, धर्मनिष्ठ, तपोमुर्ति प्रात: स्मरणीय महर्षि दधीचि ने सतयुग में जन्म लिया। द्वापर युग की बात है – राजा जनमेजय भगवान वेद व्यासजी से पूछते हैं- महर्षि दधीचि कौन थे, वे किसके पुत्र थे, इनकी माता कौन थी और भगवती दधिमथी उनकी रक्षा करने वाली कौन थी? व्यासजी बोले – हे राजन! तुमने बड़ा ही सुन्दर प्रश्न पूछा? जो बड़ा ही रोचक है। ध्यान पूर्वक तुम श्रवण...

अनन्त चतुर्दशी का व्रत

अनन्त चतुर्दशी का व्रत

अनन्त भगवान् का स्मरण करता हुआ वह पूजा की तैयारी करे। आँगन में बेदी बनाकर उसे गोबर से लीपे और उसके उपर रखकर अष्टदल लिखे अगर बेदी नहीं बनावें तो पाटिया काम में लेवें। अष्टदल पर सोना, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टी की स्थापना करें, उसके पास कच्चे सूत का, १४ तार का, १४ गाँठों का डोरा रखें। भ में आम, अशोक, गूलर, पीपल और बड़ के पत्ते रखें, फिर शुद्ध आसन पर बैठकर तीन आचमन करें। प्रणायाम करके यह संकल्प करें कि ‘मैं अपने कुटुम्ब तथा अपने कल्याण, आरोग्य, आयु और चतुर्विध पुरूषार्थ की सिद्धि के लिए भगवान् अनन्त का व्रत...

सातुड़ी तीज

सातुड़ी तीज

हमेशा वेश्या के घर जाता था | वो कोढ़ी था, जिससे उसकी पत्नी उसे अपने कंधे पर बैठाकर ले जाती और वो कहता अब तू जा, तो वो चली जाती, ऐसे करते-करते भादवे की तीज आई, वो गेहूँ पीसने बैठी थी इतने में उसका पति आया और बोला

दधीचि तीर्थ नेमिषारण्य नव निर्माण के लिये पधारें

दधीचि तीर्थ नेमिषारण्य नव निर्माण के लिये पधारें

नैमिषारण्य महर्षि दधीचि की तपस्थली रही, शिव के परम भक्त दधीचि यहाँ दधिचेश्वर महादेव की नित्य पूजा करते थे, यहीं पर वृत्रासुर को मारने के लिए इन्द्र को वज्र बनाने हेतु अस्थिदान दिया गया था, समस्त तीर्थों के स्नान, दर्शन की इच्छा को पूरा करने के लिए इन्द्र ने सभी तीर्थों को यहां आमंत्रित किया, इसीलिये यह स्थान ‘मिश्रित तीर्थ’ कहलाता है, यहीं पर दधीचि ने अश्विनीकुमारों को मधु विद्या का ज्ञान दिया था, यहीं पर महर्षि पत्नी सुवर्चा (वेदवती) ने पिप्पलाद को गर्भ से निकालकर महर्षि दधीचि के शरीर के साथ आत्मोसर्ग किया था तथा माँ दधिमथी ने बालक पिप्पलाद...

स्वार्थ में अंंधे ना होकर राष्ट्र कल्याण के बारे में भी सोचना चाहिए

स्वार्थ में अंंधे ना होकर राष्ट्र कल्याण के बारे में भी सोचना चाहिए

के आने पर दान में विलम्ब हो सकता है, उन्होंने महादान ‘अस्थिदान’ किया जिस अस्थियों द्वारा ८२० राक्षसों का संहार हुआ। श्री सावित्री खानोलकर ने वीरता के लिये पहचाने जाने वाला सर्वोच्च सम्मान ‘परमवीर चक्र’ का प्रारुप बनाते वक्त महर्षि दधीचि से प्रेरणा ली गयी थी। परमवीर चक्र के एक और उन्होंने वङ्का बनाया (वङ्का बनाने के लिये महर्षि ने अस्थिदान किया था) और दूसरी और शिवाजी की तलवार बनाई गई। यह परमवीर चक्र १६ अगस्त १९९९ को अस्तित्व में आया

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