संयम साधना के शिखर पुरूषअवधुत श्री पूर्णानन्दजी
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संयम साधना के शिखर पुरूषअवधुत श्री पूर्णानन्दजी
वह परम चिन्मयी सत्ता जिसने यह उपलब्ध कर लिया न मैं नामरूप हूँ, न ये नामरूप मेरे हैं, मैं अखण्ड, अद्वैत
सच्चिदानन्द ब्रह्म हूँ' ऐसी चिन्मयी सत्ता इस संसार से चले जाने पर भी ज्यों-की-त्यों अखण्ड रह जाती है। घड़े के
फूटने से आकाश नहीं फूट जाता, वह न तो घड़े का बन्दी था न उसका मुखापेक्षी। नाम और रूप की मिथ्या
ग्रन्थियों से छूट कर वह अपने अखण्डानन्द स्वरूप में स्थित हो जाता है। यही उस ब्रह्मविद्-निष्ठ के लिए भी
सत्य है जिसे जगत संत शिरोमणि पूर्णानन्दजी महाराज ‘बापजी' के नाम से जानते हैं।
श्री १००८ अवधूत संत शिरोमणि पूर्णानन्दजी महाराज ‘बापजी' का आविर्भाव पंजाब-हरियाणा कि पुण्यभूमि गाँव
सदलपुर मंडी आदमपुर (हिसार) में सन्ा् ९०० ई. में हुआ। पिताश्री रेडाराम बिश्नोई (बेनीवाल) एवं माता श्रीमती
फूला देवी ने बालक का नाम ‘कानाराम' रखा।
विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न बालक कानाराम ७ वर्ष की अल्पायु से ही वैराग्य वृत्ति और भगवद् भक्ति में लीन व
मगन रहने लगे। १७ वर्षीय इस किशोर ने
गृह-त्याग कर हरिद्वार में सप्तर्षियों के दर्शन किए व उनके आदेशानुसार गुरु दीक्षा ग्रहण कर अपनी लगन,
समर्पण एवं साधना के बल पर युवा होते-होते ‘स्वामी पूर्णनन्द अवधूत' बन गये। तत्पश्चात्ा एक युग (१२
साल) तक उत्तराखंड के घने जंगलों में कठोर साधना और परमात्म-साक्षात्कार में लगे रहे। लम्बी साधना के बाद
वे अपने गाँव पधारे एवं लोगों से भिक्षा ग्रहण की। ग्रामवासियों ने एक अनूठा दृश्य देखा-जिसमें भयंकर
ओलावृष्टि में भी ‘बापजी' को खुले आकाश के नीचे एक गोलाकार कुंड में समाधिस्थ देख सभी स्तब्ध रह गये।
इस पर भी आश्चर्य यह था कि इतनी भयंकर वर्षा के बावजूद उस कुंड में वर्षा की एक भी बूँद नहीं गिरी।
भक्तिमिश्रित रोमांच से ग्रामवासी एक साथ बोल पड़े-अरे, अपना कान्हा तो ‘सिद्ध अवधूत' बन गया है।
वि.सं. ४ ९९७ भाद्रपद माह में ‘बापजी' ने बीकानेर के धर्मप्राण श्री हनुमानदासजी मूँधड़ा को ऋषिकेश स्वर्गाश्नम
में गंगा प्रवाह में बहते हुए मौत के मुँह से बचाया। ‘बापजी' के अत्यन्त कृपा-भाजन श्री मूँधड़ाजी ने साहेबजी
(अवधूत चन्दनदेवजी) एवं पूर्णानन्दजी को बीकानेर पधारने का न्योता दिया। इस निमन्त्रण के पीछे पू. साध्वी
लाली बाई का भी भारी आग्रह छिपा था।
महायोगी अवधूत श्री चन्दनदेवजी महाराज, जो सत् साहेब के नाम से भी विख्यात थे, भक्त की विनती पर महर
करवाकर बापजी महाराज के साथ बीकानेर पधारे। यहाँ मूँधड़ों के तालाब एवं लाली बाई दम्मानी की बगीची में
प्रवास किया। उसके बाद कई बार बीकानेर आगमन होता रहा। भगवद् भक्ति में रचे-पगे इन निर्लिप्त अवधूतों
की युगल जोड़ी जहाँ भी पधारती वहाँ एक विशिष्ट एवं अनुपम दृश्य उपस्थित हो जाता था।
‘भीनासर’ के सत्संग प्रेमी व संतभक्ति में तल्लीन सेठ श्री भीखमचन्दजी सारडा के विशेष आग्रह पर ‘बापजी' ने
‘भीनासर’ जाना भी स्वीकार किया।
दरअसल साधना के पथ पर प्रस्थित साधक परमात्म-मिलन एवं आत्म-साक्षात्कार को ही अपना चरम लक्ष्य
मान सतत साधना में संलग्न रहता है।
यहाँ के उजले रेतीले धोरे एवं सात्विक परिवेश का आपने भरपूर लाभ उठाया।
कई वर्षों तक लगातार तपस्या की तथा यहाँ के सत्संग प्रेमियों को ज्ञान, भक्ति व तप का मार्ग दिखाया।
‘साधां वैâ के स्वाद' बापजी बड़े ही तटस्थ भाव से एक हंडी (मिट्टी का पात्र) में दूध या प्रसाद ग्रहण करते। वे सच्चे
अर्थों में मानव-मित्र थे। छुआ-छूत, जात-पात, ऊँच-नीच, धनी-गरीब की उनके यहाँ कोई भेद-रेखा नहीं थी।
बापजी का प्रवास प्रायः ‘भीनासर’ सालिमनाथजी का धोरा, उदयरामसर, मुकामधोरा, डूँगरगढ़, सींथल व
कोलायत आदि रेतीले धोरों पर ही रहता।
निरन्तर तपश्चर्या एवं सघन साधना में तल्लीन ‘बापजी' ने अपने गुरु ‘दूधाधारी बाबा' के आदेश की अनुपालना
जीवनपर्यन्त निष्ठापूर्वक की।
निःस्वार्थ एवं निःस्पृह भाव से भक्ति करने वाले ‘बापजी' भौतिक सुख- सुविधा, धन-वैभव, शिष्य बनाने, भवन
बनवाने जैसे प्रलोभनों से बहुत दूर रहते थे। ‘माया महाठगिनी हम जानि' के आपण प्रबल समर्थक थे। आपकी
मुख्य उपदेश थे-माता-पिता की निःस्वार्थ सेवा, रामनाम का अहर्निश जप, परहित, परोपकार तथा किसी को पीड़ा
नहीं पहुँचाना आदि मुख्य शिक्षा थी। राजस्थान की कड़ाके की सर्दी, झुलसा देने वाली गर्मी, भयंकर बारिश,
आँधी-तूफान, ओलावृष्टि या प्रचण्ड लू में भी, परमात्म साधक ‘बापजी' एक लंगोट में ही रहते थे। इसीलिए लोग
आपको ‘अवधूत' ही कहकर बुलाते थे। परमार्थ व जन कल्याण के लिए अवतरित इस परम तपस्वी सिद्धपुरुष ने
सेठ श्री बंशीलालजी राठी की बगीची में चैत्र शुक्ला द्वितीया सं. २०२३ (सन्ा् ९६६) को ‘भीनासर’ की पुण्य धरा
पर प्रातः ५ बजे ब्रह्ममुहूर्त में स्वेच्छा से अपना शरीर त्याग दिया और परमात्मा में विलीन होकर अमृतत्व को
प्राप्त किया। भीनासर की पुण्यस्थली गौरवान्वित हुई। प्रातःस्मरणीय ‘बापजी' महाराज की समाधि सेठ श्री
बंशीलालजी राठी की बगीची के पीछे गोचर भूमि में स्थापित करवाई गई है जहाँ अब एक भव्य मन्दिर ‘शिवालय'
बन गया है।' बापजी' के साक्षात्ा और दिव्य रूप के दर्शन अब इसी मन्दिर में हो सकते हैं।
यह दिव्य मन्दिर परिसर सभी सुविधाओं से युक्त एवं सज्जित है। ‘बापजी' महाराज की भक्ति में स्नान सभी
श्रद्धालु एवं सारडा परिवार करता रहा है, इस बगीची के कर्त्ता श्री रामनारायणजी राठी के सदैव आभारी रहेंगे,
जिन्होंने इस मन्दिर के लिये हर-सम्भव सहयोग दिया।